।। श्रीहरिः ।।

सब जग ईश्वररूप है-३


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
आमके बगीचेमें आमकी गुठली ही वृक्ष बनती है और अन्तमें आमका फल शेष रहता है । फल तो खानेके काम आ जाता है; और अन्तमें आमकी गुठली ही शेष रहती है । बीचमें वृक्ष दीखता है तो यह गुठलीकी विकृति है । यदि विकृतिको देखें तो वृक्ष है और मूलको देखें तो गुठली है । ऐसे ही विकृतिको देखे तो संसार है* और मूलको देखें तो भगवान् हैं । विकृतिको देखना गलती है, क्योंकि अन्तमें विकृति तो रहेगी नहीं, मूल ही रहेगा । अतः विकृतिको न देखकर मूलको देखना परमात्मदृष्टि है । परमात्मदृष्टिसे परमात्मा-ही-परमात्मा दीखते हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ।

एक ही जल बर्फ, कोहरा, बादल, ओला, वर्षा, नदी, तालाब, समुद्र आदि अनेक रूपोंमें हो जाता है । कड़ाहीमें बर्फ डालकर उसको अग्निपर रखा जाय तो बर्फ पिघलकर पानी हो जायगी । फिर पानी भी भाप हो जायगा और भाप परमाणु होकर निराकार हो जायगा । जल ही कोहरारूपसे होता है, वही बादलरूपसे होता है, वही ओलारूपसे होता है, वही वर्षारूप होकर पृथ्वीपर बरसता है, वही नदीरूपसे होता है, वही समुद्ररूपसे होता है । अनेक रूपसे होनेपर भी तत्त्वसे जल ही रहता है । ऐसे ही भगवान् अनेक रूपसे बन जाते हैं । जैसे जल ठण्डकसे जमकर बर्फ हो जाता है और गरमीसे पिघलकर और भाप बनकर परमाणुरूप हो जाता है, ऐसे ही अज्ञानरूपी ठण्डक (जाड़े) से भगवान् स्थूल संसाररूपसे हो जाते हैं और ज्ञानरूपी अग्निसे सूक्ष्म होकर ‘वासुदेवः सर्वम्’रूपसे हो जाते हैं । जल चाहे बर्फरूपसे दिखें या भाप, बादल आदि रुपोंसे दीखे, है वह जल ही । जलके सिवाय कुछ नहीं है । ऐसे ही भगवान् चाहे संसाररूपसे दीखें या अन्य रुपोंसे दिखें, हैं वे भगवान् ही । हमारे और सूर्यके बीचमें कुछ नहीं दीखता है, पर वहाँ भी जल परमाणुरूपसे जल भरा है । जल चाहे बर्फ-रूपमें होनेसे दीखे अथवा परमाणु-रूपसे होनेसे न दीखे, तो भी होता वह जल ही है । इसी तरह जो दीखता है, वे भी भगवान् हैं और जो नहीं दीखता, वे भी भगवान् हैं—‘त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्’ (गीता ११/३७) । सब जगह भगवान्-ही-भगवान् हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ।

जैसे, हमें हरिद्वार याद आता है तो मनमें हरिकी पैडी दीखती है, उसमें लोग स्नान करते हुए दीखते हैं, गंगाजी बहती हुई दीखती हैं, गंगाजीमें मछलियाँ दीखती हैं, आदि-आदि । यह सब-का-सब मन ही बना हुआ है । मनसे हरिद्वारका चिन्तन छूटते ही कुछ नहीं रहता, केवल मन रहता है । ऐसे ही भगवान् ने संकल्प किया—‘बहु स्यां प्रजायेय’ तो भगवान् ही संसाररूपसे प्रकट हो गये और संकल्प छोडनेपर संसार नहीं रहेगा, केवल भगवान् ही रहेंगे । अतः एक ही भगवान् अनेक रूपोंमें बने हुए हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ।

खाँड़के कई तरहके खिलौने होते हैं, पर उन सबमें खाँड़के सिवाय और कुछ नहीं होता । खाँड़की कोई छतरी बनी हुई है, कोई चिड़िया बनी हुई है, कोई मकान बना हुआ है, पर गलनेपर वे सब एक हो जाते हैं । सोनेके अनेक गहने बनते हैं । उनमें कोई पैरमें पहननेका होता है, कोई कमरमें पहननेका होता है, कोई नाकमें पहननेका होता है, कोई कानमें पहननेका होता है, कोई गलेमें पहननेका होता है, कोई हाथोंमें पहननेका होता है आदि-आदि । उन गहनोंके अलग-अलग नाम, रंग, आकृति, उपयोग, तौल, मूल्य होते हैं । परन्तु उन सबमें एक सोनेके सिवाय अन्य कुछ नहीं होता । इसी तरह अनेक तरहकी सृष्टि दीखते हुए भी एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है । तात्पर्य है कि जैसे जलसे बनी हुई चीज जल ही है, खाँड़से बनी हुई चीज खाँड़ ही है, सोनेसे बने हुए गहने सोना ही हैं, ऐसे ही भगवान् से बना हुआ सब संसार भगवान् ही हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ।

सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय ।
जैसे जाकी भावना, तैसो ही फल होय ॥

टिपण्णी—
*संसारको सत्ता और महत्ता देनेसे ही इसको विकृति कहा गया है असत् संसाररूपसे सत्ता और महत्ता न दें तो यह चिन्मय भगवत्स्वरूप ही है—ऐसा अनुभव हो जाता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे