।। श्रीहरिः ।।

सब जग
ईश्वररूप है-५
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें सब कुछ चिन्मय ही है, पर राग-द्वेषके कारण वह जड, लौकिक दीखता है । राग-द्वेष न हों तो एक चिन्मय तत्त्व (भगवान्) के सिवाय कुछ है ही नहीं । जड-चेतन, स्थावर-जंगम, विनाशी-अविनाशी सब एक भगवान् ही हैं, भेद केवल राग-द्वेषके कारण है । राग-द्वेषका भी कारण मोह अथवा अज्ञान है—

‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ।’
(मानस,उत्तर. १२१/१५)

मोह मिटनेसे ‘सब कुछ भगवान् ही है’—यह स्मृति प्राप्त हो जाती है—‘नष्टोमोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १२/७३) । अतः ‘वासुदेवः सर्वम्’ तो सदासे ही है और सदा ही रहेगा, पर मोहके कारण उसका अनुभव नहीं होता । तात्पर्य है कि बुद्धिमें जडता (मोह) होनेसे ही जड दीखता है । बुद्धिमें जडता न हो तो सब कुछ चिन्मय ही है । जैसे आँखोंपर जिस रंगका चश्मा चढायें, वैसा ही रंग सब जगह दीखता है, ऐसे ही राग-द्वेषादि जैसी वृत्तियाँ होती हैं, वैसा ही संसार दीखता है ।

साधकसे गलती यह होती है कि वह अपनेको अलग रखकर संसारको भगवत्स्वरूप देखनेकी चेष्टा करता है अर्थात् ‘वासुदेवः सर्वम्’ को अपनी बुद्धिका विषय बनाता है । वास्तवमें केवल दिखनेवाला संसार ही भगवत्स्वरूप नहीं है, प्रत्युत देखनेवाला भी भगवत्स्वरूप है । अतः साधकको ऐसा मानना चाहिये कि अपनी देहसहित सब कुछ भगवान् ही हैं अर्थात् शरीर भी भगवत्स्वरूप है, इन्द्रियाँ भी भगवत्स्वरूप हैं, मन भी भगवत्स्वरूप है, बुद्धि भी भगवत्स्वरूप है, प्राण भी भगवत्स्वरूप हैं और अहम् (मैंपन) भी भगवत्स्वरूप है ।

सब कुछ भगवान् ही हैं—इसको माननेके लिये साधकको बुद्धिसे जोर नहीं लगाना चाहिये, प्रत्युत सहजरूपसे जैसा है, वैसा स्वीकार कर लेना चाहिये । इसलिये श्रीमद्भागवतमें आया है—


सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्याऽऽत्ममनीषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः ॥
(११/२९/१८)

‘जब सबमें भगवद् बुद्धि की जाती है, तब ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—ऐसा दीखने लगता है । फिर इस परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होनेपर सम्पूर्ण संशय स्वतः निवृत्त हो जाते हैं ।’

तात्पर्य है कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस भावसे भी उपराम हो जाय, इसका भी चिन्तन न करे अर्थात् न द्रष्टा (देखनेवाला) रहे, न दृश्य (दीखनेवाला) रहे और न दर्शन (देखनेकी वृत्ति) ही रहे, केवल भगवान् ही रहें । इसलिये भगवान् ने कहा है—

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेन्यैरपीन्द्रियैः
अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्दादिविषय) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार करके अनुभव कर लें ।’

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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