।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-१

तपसामपि सर्वेषां वैराग्यं परमं तपः ।

यज्ञ, दान, योग, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय आदि पुण्य-कर्मरूप सभी प्रकारकी तपस्यओंमें वैराग्य परम तप है; क्योंकि अन्यान्य धार्मिक कार्य (तप) सकामभावसे करनेपर उनके द्वारा स्वर्गादिकी प्राप्ति हो जाती है और निष्कामभावसे करनेपर ही वे परमात्माकी प्राप्तिके साधन बनते हैं; परन्तु वैराग्य तो निष्कामभावसे ही होता है । सकामभाव और वैराग्य—दोनों एक जगह रह ही कैसे सकते हैं ? अतः पारमार्थिक साधकके लिये एक वैराग्य ही बहुत आवश्यक और परम उपयोगी है । जबतक वैराग्य नहीं, तबतक चाहे जितनी डींगे मारें, उनसे कोई भी आध्यात्मिक कार्य सिद्ध नहीं होता । दूसरी ओर यदि हमें बातें करना नहीं आता; ज्ञानयोग तथा हठयोगकी युक्तियाँ भी हम नहीं जानते; तो भी केवल वैराग्य होनेपर ध्यान आदि साधन सरलतासे स्वयमेव होने लगते हैं, ध्यान आदिकी युक्तियाँ बिना सीखी हुई स्वतः स्फुरित होने लगती हैं । जबतक संसारके पदार्थोमें राग है और प्रभुमें प्रेम नहीं तबतक वैराग्य नहीं । वैराग्य नाम है सांसारिक पदार्थोमें आन्तरिक रागके अभावका । बाहरी स्वाँगका नाम वैराग्य नहीं है । वैराग्य भीतरी त्यागके भावका वाचक है ।

वैराग्य कई हेतुओंसे होता है—दुःखसे, भयसे, विचारसे, साधनसे और परमात्माके बोधसे । इन सबमें पूर्व-पूर्व वैराग्यकी अपेक्षा उत्तरोत्तरका वैराग्य श्रेष्ठ है ।

दुःखसे होनेवाला वैराग्य—घर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार आदिकी अनुकूलता न होनेपर तथा परिस्थितिकी प्रतिकूलता प्राप्त होनेपर जो मनमें संसारके त्यागकी उकताहटसे भरी भावना होती है, उसे दुःखसे होनेवाला वैराग्य कहते हैं । यह दुःखसे होनेवाला वैराग्य असली नहीं; क्योंकि हमें आराम नहीं मिला, दुत्कार मिली, तिरस्कार मिला या मनमानी चीज नहीं मिली तो मनमें भाव आया कि छोडो संसारको, इसमें क्या पड़ा है । संसारमें तो केवल दुःख-ही दुःख भरा है । इस प्रकारका वैराग्य तो सभीको हो सकता है । कुत्ता भी तनी हुई लाठी देखकर भागता है , अपनी जान बचाता है । अतः वह यथार्थ वैराग्य नहीं । इसमें जो कुछ उकताहट है और अनुकुलताका अनुसन्धान है, वह वैराग्य नहीं । उसमें तो राग ही कारण है; क्योंकि दुःखके कारण हटनेपर अर्थात् अनुकूलता प्राप्त हो जानेपर वह त्यागका भाव रहना कठीन है । यदि प्रतिकूलता न रहे, सब कुटुम्बीजन मनोनुकूल सेवा करने लगें, तो फिर वैराग्य भूल जाता है । उसमें केवल जो पदार्थोंको दुःखका कारण समझनेका भाव है, वही वैराग्यका अंश है । इस प्रकार दुःखके कारण होनेवाला वैराग्य यथार्थ वैराग्य नहीं है, किन्तु उस समय यदि संग अच्छा मिल जाय तो वही वैराग्य अधिक बढ़कर आत्मोद्धारमें कारण बन सकता है । इसलिये उसे भी वैराग्य कह सकते हैं ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे