।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
पिंगला नामकी एक वेश्या थी । वह बड़ी प्रसिद्ध थी । बहुत-से भोगी, धनी उसके यहाँ आया करते थे और उसे धन दिया करते थे, किंतु एक दिन रात्रिको वह राह देखती ही रह गयी, पर कोई धन देनेवाला आया ही नहीं । इससे वह बड़ी उद्विग्न थी । इतनेमें ही उसने देखा कि उधरसे दत्तात्रेयजी अपनी मस्तीमें घूमते हुए चले आ रहे हैं । उनको देखकर वह विचारने लगी कि ‘इस जनक राजाकी विदेहनगरीमें मैं ही एक ऐसी मूर्खा हूँ, जो दूसरे पुरुषोंसे सुख और तृप्ति चाहती हूँ । वे मुझे क्या सुख देंगे, मेरी क्या तृप्ति करेंगे । यदि उनके पास सुख होता और वे मुझे सुख दे सकते तो मेरे पास उसे लेने क्यों आते ? जो स्वयं अपनी प्यास नहीं बुझा सकता, वह दूसरेकी क्या बुझायेगा । जो स्वयं टुकड़ेके पीछे कुत्तेकी तरह सुखके लिये दर-दर भटकता है, वह औरोंको क्या सुख देगा ?’ दत्तात्रेयजीकी मस्ती देखकर उसके मनमें ऐसे विचार आये और उसे वैराग्य हो गया । उसने सोचा—‘अबतक मैंने बड़ी भूल की, अब मैं अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करुँगी ।’ उसके विषयमें श्रीशुकदेवजीने कहा है—

आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
यथा संछिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिंगला ॥
(श्रीमद्भागवत ११/८/४४)

‘आशा ही सबसे बड़ा दुःख और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है । पिंगला वेश्याने जब पुरुषकी आशा त्याग दी, तभी वह सुखसे सो सकी ।’

सचमुच आशा ही दुःखों और पापोंकी जड है । गीतामें अर्जुनने भगवान् से प्रश्न किया है कि ‘मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी बलात् किसकी प्रेरणासे पाप करता है ?’ इसपर भगवान् ने उत्तरमें कामनाको ही पापका कारण बतलाया । जितने व्यक्ति जेलमें पड़े हैं, जितने नरकोंकी भीषण यातना सह रहे हैं और जिनके चित्तमें शोक-उद्वेग हो रहे हैं तथा जो न चाहते हुए भी पापाचारमें प्रवृत्त होते हैं, उन सबमें कारण भीतरकी कामना ही है । संसारमें जितने भी दुःखी हैं, उन सबका कारण एक कामना ही है । कामना प्रत्येक अवस्थामें दुःखका अनुभव करती रहती है—जैसे पुत्रके न होनेपर पुत्र होनेकी लालसाका दुःख, जन्मनेपर उसके पालन-पोषण, विद्याध्ययन और विवाहादिकी चिन्ताका दुःख और मरनेपर अभावका दुःख होता है । कामनाके रहनेपर तो प्रत्येक हालतमें दुःखी ही होगा । अतएव जिस प्रकार आशा ही परम दुःख है, उसी प्रकार निराशा— वैराग्य ही परम सुख है । स्त्री, पुत्र, परिवार—सब आज्ञाकारी मिल जायँ, तब भी सुख नहीं होगा, सुख तो इनकी कामनाके परित्यागसे ही होगा । ऐसा विचारकर पिंगला अपनी सारी धन-सम्पत्तिको लुटाकर वैराग्यके नशेमें निकल जाती है और निश्चय करती है कि मैं परमात्माका ही भजन-ध्यान करुँगी और परम सुखी हो जाऊँगी ।

मैवं स्युर्मन्दभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।
येनानुबन्धं निर्हत्य पुरुषः शममृच्छति ॥
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसंगताः ।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम् ॥
संतुष्टा श्रद्दधत्येतद् यथालाभेन जीवती ।
विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥
(श्रीमद्भागवत ११/८/३८-४०)

‘(अवश्य मुझपर आज भगवान् प्रसन्न हुए हैं) अन्यथा मुझ अभागिनीको ऐसे क्लेश ही नहीं उठाने पड़ते, जिससे ‘वैराग्य’ होता है । मनुष्य वैराग्यके द्वारा ही सब बन्धनोंको काटकर शान्ति-लाभ करता है । अब मैं भगवान् का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोडकर उन परमेश्वरकी शरण ग्रहण करती हूँ । अब मुझे प्रारब्धानुसार जो कुछ मिल जायगा,उसीसे निर्वाह कर लूँगी और सन्तोष तथा श्रद्धाके साथ रहूँगी । मैं अब किसी दूसरेकी ओर न ताककर अपने ह्रदयेश्वर आत्मस्वरूप प्रभुके साथ ही विहार करुँगी ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे