।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
‘गुणेखलभयम्’—जहाँ परीक्षक नहीं, गुणी नहीं, गुणग्राही नहीं, वहाँ मूर्खोंमें हमारा मूल्य ही क्या । एक गवैये थे । वे बड़ा सुन्दर सितार लेकर राजाके पास गये । पर राजा मूर्ख था, संगीतको क्या समझता ! इस पर किसी कविने कहा—

रे गायक ये गायसुत तू जानत परबीन ।
ये गाहक कड़बीन के तै लीन्हीं कर बीन ॥

गुण कितने ही हों, पर गुणग्राहक नहीं तो उन्हें कौन लेगा । भर्तृहरि कहते हैं—‘हमारे पास बहुत विद्या थी, पर किसीने नहीं ली’—

बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः ।
अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम् ॥

इसी प्रकार एक कविने कहा है—

कौन सुनै कासों कहूँ सुने तो समझै नाहिं ।
कहना सुनना समझना मन ही का मन माहिं ॥

‘काये कृतान्ताद्भयम्’—शरीरके पीछे तो यमराज सदा ताकमें रहते हैं कि कब कलेवा करें—

इस स्वासका मूढ़ विस्वास कहा पल आवत ही रह जावता है ।
सब पीर पैगम्बर खाक मिले तेरे का अनुमान फुलावता है ॥

बड़े-बड़े राजा महाराजा हो गये । अब उनके महलोंके टूटे-फूटे खँडहर पड़े हैं । उनको देखनेसे मनमें वैराग्य होता है, जो सर्वथा अभयप्रद है । जिसके हृदयमें वैराग्य है, उसे शरीरके जानेका भी भय नहीं; फिर नाशवान् पदार्थोंके चले जानेका तो भय ही क्या है । क्योंकि—

अवश्यं यातरश्चिरतरमुषित्वापि विषया
वियोगे को भेदस्तयजति न जनो यत् स्वयममून् ।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥

'विषय-पदार्थ चाहे दीर्ध कालतक रहें, पर एक दिन वे अवश्य जानेवालें हैं— चाहे हम उनका त्याग कर दें अथवा वे हमें त्याग दें । उनका बिछोह अवश्य होगा । पर संसारी मानव स्वयं उनका त्याग नहीं करते । जब विषय-पदार्थ स्वतन्त्रतासे उनका त्याग करते हैं, तब उनके मनको बड़ा संताप होता है; परन्तु यदि वे स्वयं उनका त्याग कर दें तो उन्हें अनन्त सुख-शान्तिकी प्राप्ति हो सकती है ।'

मनसे छोड देनेपर ये ही पदार्थ सुख देनेवाले हो जायँगे । जैसे, दस रुपये चोरी चले गये तो दुःख होता है, पर अपनी इच्छासे दान दे दिया तो सुख देता है, किंतु उनसे सम्बन्धविच्छेदमें तो कोई भेद नहीं ।

कहा परदेसीकी प्रीति जावतो बार न लावै ।
आत न देख्यो जात न जाण्यो क्या कहियाँ बणि आवै ।१।
जैसे बास फूलन तें बिछुरे मांहो माहि समावै ।२।
जैसे संग सरायको दिन ऊगे उठि जावै ।३।
जैमलदास अगम रस घटमें, जो खोजै सो पावै ।४।

—जानेवाला हो, उसे एक धक्का अपनी तरफसे दे और कह दे कि जा, चला जा तो मौज हो जाय !

एक जाट दम्पति थे । दोनोंमें खटपट चला करती । जाटनी बार-बार कहती कि ‘मैं अब तुम्हारे घर नहीं रहूँगी, चली जाऊँगी ।’ जाटने सोचा—‘नित्य लड़ाई करती है, अन्तमें यह जायगी ही; इज्जत भी लेती जायगी ।’ इससे तो इसे पहले ही त्याग देना अच्छा है, एक दिन जब रातमें स्त्रीने स्पष्ट कह दिया कि ‘कल सबेरे मैं चली जाऊँगी,’ तब जाटने रातमें अपने कोठेपर खड़े होकर गाँववालोंको जोरसे घोषणा कर दी कि ‘अब मुझे कोई उलाहना न देना, मैंने आजसे ही अपनी पत्निका परित्याग कर दिया है । स्त्री चली नहीं गयी, उसे मैंने निकल दिया है ।’ ऐसे ही संसारके समस्त पदार्थ जाटनीकी तरह हैं, अतः इन्हें पहलेसे ही त्याग दें । पदार्थोंको स्वयं त्याग देनेपर ये परम शान्ति देनेवाले हो जाते हैं—

अंतहु तोही तजैंगे पामर ! तू न तजे अबही ते ।

ऐसा विचार करके भर्तृहरि कहते हैं—

अजानन् दाहार्त्ति पतति शलभस्तीव्रदहने
न मीनोऽपि ज्ञात्वा वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते व्रयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह ! गहनो मोहमहिमा ॥

‘पतिंगा इस बातको नहीं जानता कि जलनेपर कैसी पीड़ा होती है, इसीलिए वह प्रचण्ड अग्निमें कूद पडता है । मछलीको भी बंसीमें लगा हुआ मांसका टुकड़ा खाते समय पता नहीं रहता कि उसके भीतर लोहेका काँटा है । परन्तु हम तो यह जानते हुए भी कि विषय-भोग विपत्तिके जालमें फँसानेवाले हैं, उन्हें छोड़ नहीं पाते । अहो ! हमारा कितना बड़ा और घना अज्ञान है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे