।। श्रीहरिः ।।

वैरागय-७
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
कई बार पदार्थोंको देखा, अनेक बार भोगोंको भोगकर देखा । फिर भी उनके पीछे पड़े हैं । फतिंगे आदि जानवर तो विषयसंगसे एक ही बार मरे, पर हमलोग तो भोगोंको भोगकर बार-बार मर रहे हैं; पर फिर भी चेत नहीं हो रहा है । बार-बार ठोकर लगनेपर भी सँभलनेका नाम नहीं लेते । आखिर कब अक्ल आयगी । बूढ़े हो गए, जीवनका अमूल्य समय चला गया; फिर भी विषयोंकी ओर लोलुपतासे देख रहे हैं ! पौत्रका, प्रपौत्रका मुँह देखना चाहते हैं । अरे धनसे सुख मिलता दिखे तो धनीसे पूछो; स्त्रियोंमें सुखका भ्रम हो तो जिसके दो-तीन स्त्रियाँ हों, उनसे पूछो; सामग्रीमें सुख दिखे तो अधिक सामग्रीवालोंसे मिलो । राज्यमें सुख दिखे तो राजाओंसे मिलकर बात कर लो । सुख तो कहीं नहीं मिलेगा; क्योंकि सुख केवल चाहके त्याग-वैराग्यसे ही है । कहा है-
चाह चूहड़ी रामदास सब नीचोंमें नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था चाह न होती बीच ।।

पर रागभरी दृष्टिवालोंको कोई वैराग्यवान् दिखता ही नहीं, जहाँ देखो वहाँ रागी-ही-रागी दिखते हैं । बात भी ठीक है, सच्चे वैराग्यवान् हैं ही कम; क्योंकि-

आदि विद्या अटपटी घट घट बीच अड़ी ।
कहो कैसे समझाइये कूएँ भाँग पड़ी ।।

बातें बड़ी-बड़ी वैराग्यकी बनाते हैं; पर पदार्थोंको, भोगोंको देखकर जीभ लपलपाने लगाती है । गीध बड़ा ऊँचा उडता है, पर जब उसकी दृष्टी नीचे सडे मांसपर रहती है ! यह तो राग ही है !

जो सच्चा वैराग्यवान् होता है, उसकी दृष्टि ही निराली हो जाती है वैराग्यवान् जिधरसे निकल जाता है, उधर ही बड़ी मस्ती लहराने लगती है वैराग्यवान् पुरुषकी सुखमयी स्थितिका वर्णन करते हुए भर्तृहरिजी कहते हैं-

मही रम्या शय्या मसृणमुपधानं भुजलता
वितानश्चाकाशो व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः ।
स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः
सुखी शान्तः शेते विगतभवभीतिर्नृप इव ।।

'विरतिरूपी कान्ताके प्रसंगसे प्रमुदित होकर पृथ्वीकी रमणीय शय्या, अपनी भुजलताका तकिया, आकाशरूपी चँदोवा, पवनरूपी अनुकूल पंखा, चन्द्रमारूप सुन्दर दीपक आदि विविध सामग्रीयोंसे युक्त भवभयसे विमुक्त पुरुष शान्तचित्त होकर राजाकी भाँति सुखसे सोता है ।'

वैराग्यवान् पुरुष शहरकी गन्दी गलियोंमें विष्ठाके कीड़ोंकी तरह क्यों घूमेगा । एक साधू कहा करते थे कि 'मैं अपने मनको समझता हूँ की भोजन-वस्त्रदिकी कोई चाहना मत कर; नहीं तो तुझे शहरकी गंदी गलीयाँ सुँघनी पड़ेंगी और बार-बार जन्मना-मरना पड़ेगा ।' श्री शंकराचार्यजी कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननीजठरे शयनं ।।

मनुष्य विषयोंकी गंदगीका तनिक-सा विचार कर ले तो उसे उलटी होने लग जाय ।

गंदगीको कीड़ो मूढ़ मानत अनंदगी ।
मायाको मजूर बंदो कहा जाने बंदगी ।।

विषयलोलुप जीव विषयोंमें रचे-पचे रहकर सुख मानते हैं । ऐसे व्यक्तियोंमें और कीड़ोंमें क्या अन्तर है ।

गुल शोर बबूला आग हवा सब कीचड़ पानी मिट्टी है ।
हम देख चुके इस दुनियाको, सब धोखेकी-सी टट्टी है ।

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दूरहि ते पर्वत दिषै, वेस्या बदन बिभात ।
रनका बरनन, रम्य त्रय दूरहि से दरसात ।।

पर्वत और वेश्याका मुख दूरसे ही सुन्दर दिखता है तथा दूरसे ही रणका वर्णन रम्य प्रतीत होता है, पर वहाँ पहुँचनेपर अच्छे-से-अच्छोंके छक्के छूट जाते हैं । इसी तरह वैराग्यवान् की मस्तीका अनुभव विरक्त ही करता है । हम पदार्थोंमें सुख खोजते हैं, पर पदार्थोंमें सुख कहाँ । भगवान् तो इस जगतको दुःखालय और अशाश्वत बतलाते हैं । जिसमें हमारे बाप-दादोंको भी सुख नहीं मिला, उसमें हमें सुख कैसे मिलेगा ? रज्जबजी दूल्हा बने जा रहे थे । रास्तेमें गुरुसे मिलने गये तो गुरुने कहा-

रज्जब तैं गज्जब कियो, माथे बाँध्यो मौर ।
आयो थो हरिभजनको, करी नरक महँ ठौर ।।

रज्जबजीने कहा-'रज्जब गज्जब जब हुतो, जातो दुनिया साथ !' रज्जबजी ऐसे थे, जिन्हें-

दादूसे सतगुरु मिले, सिष रज्जबसे जान ।
एकहि सब्द सुलझि गये, रही न खैंचातान ।।

एक ही शब्द काम कर गया ! वैराग्यवान् पुरुषोंको तो देखनेसे ही वैराग्य हो जाता है । वेश्याको दत्तात्रेयजीने कहा कुछ नहीं, उसे उनको देखते ही वैराग्य हो गया ! क्योंकि वैराग्यवान् की मुद्रा ऐसी ही होती है ।

खंडी हंड़ी हाथ में बंडी-सी कौपीन ।
रंडी दिसि देखे नहीं, काया दंडी कीन ।।

वैराग्यकी बातोंमें इतना आनंद है तो फिर यदि हृदयसे सच्चा वैराग्य हो जाय, तब तो आनन्दका कहना ही क्या । सच्चे वैराग्यवान् के सामने बढ़िया वस्त्र पहनकर, इत्र आदि लगाकर एवं श्रृंगार करके बैठनेवालेको बैठनेमें भी संकोच होता है । उपर्युक्त प्रकारका वैराग्य विवेक-विचारसे होनेवाला वैराग्य है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

-'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे