।। श्रीहरिः ।।
वैराग्य-८
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
किन्तु साधनसे होनेवाला वैराग्य विचारसे होनेवाले वैराग्यसे भी श्रेष्ठ है । वाणीसे रामनामका जप प्रारम्भ कर दिया -'राम राम राम राम राम ।' शरीर रोमाञ्चित और पुलकित हो रहा है तथा हृदयमें लबालब प्रेम भरा है, भगवान् की बात सुनकर ही नाचने लग जाता है । उस हालतमें कभी भूलकर भी पदार्थोंकी ओर मन नहीं जाता, उसे स्वाभाविक ही भोगोंसे वैराग्य रहता है । मन तो भगवान् की ओर बरबस खींचता रहता है । उसके हृदयमें प्रेमानन्द समाता नहीं । वह तो यही कहता रहता है कि 'गिरधारीलाल ! चाकर राखो जी' और वह मीराकी तरह प्रेममें मस्त होकर नाचने लगता है ।
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे ।

मतवाली मीरा प्रेममें मस्त होकर लगी नाचने । कारण क्या ? भजनका रस मिल गया । सांसारिक दृष्टीसे ज्यादा-से-ज्यादा आकर्षक मान-बड़ाई, यश-कीर्ति है; इनकी तो परवाह ही क्या हो, उलटी बदनामीसे डर न लगकर वह मीठी लगने लगती है । मीरा कहती है-
या बदनामी लागे मीठी राणाजी ! म्हाँने या बदनामी लागे मीठी ।
थारे शहरको राणा ! लोक निमाणो, बात करे अणदीठी ।।
हरि मंदिरको नेम हमारे दुरजन लोकां म्हाने दीठी । राणाजी.
साँकडी सेरयाँमें म्हारा सत्तगुरु मिलिया, किस बिधि फिरूँ अफूटी ।
म्हारो साँवरियो राणा घट-घट ब्यापक, थाँरे हियें री काँई फूटी ।।
सासु ननद म्हारी देराणी जेठानी बल जल हो गयी अँगीठी ।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चढ़ गयो चोल मजीठी । राणाजी।

इस प्रकार साधन-भजन करनेपर जो वैराग्य होता है, उससे पदार्थोंमें राग अपने-आप अनायास मिट जाता है । भजनानन्दीको पदार्थोंसे अरुचि करनी नहीं पड़ती । उसका मन तो भगवान् में सहज ही संलग्न हो जाता है । यदि कहें की हमलोगोंका मन हर जगह जाता है, तो ठीक है; हर जगह जाता है, पर भगवान् पर नहीं जाता । और अगर भगवान् पर चला जाय तो फिर लौटकर संसारमें आयगा नहीं । मक्खी सब जगह जाकर बैठती है, पर आगपर नहीं । पर यदि आगपर बैठ जाय तो फिर उठती ही नहीं, इसी प्रकार भगवान् में मन लग जानेपर फिर कहीं नहीं जाता, तद्रूप हो जाता है । अतः संसारसे वैराग्य और भगवान् में प्रेम होनेके लिए हमलोगोंको बड़ी तेजीसे भगवान् का भजन करना चाहिये-
कहै दास सगराम बड़गड़ै घालो घोड़ा ।
भजन करो भरपूर रया दिन बाकी थोड़ा ।।
थोड़ा दिन बाकी रया कद पहुँ चोला ठेट ।
अधबिचमें बासो बसो तो पडसो किणरे पेट ।।
पड़सो किणरे पेट पड़ैला भारी फोड़ा ।
कहै दास सगराम बड़गड़ै घालो घोड़ा ।।

एक भक्तदम्पति थे । पति-पत्नी दोनों ही बड़े भजनानन्दी थे । उनके भजन करनेका तरीका यह था कि वे अपने पासमें कुछ उड़द रख लेते और एक माला फेरनेपर एक उड़द उठाकर रख देते । इस प्रकार सेर, देढसेर तथा दो-दो, तीन-तीन सेर तक उड़द समाप्त हो जाते । पति कहता की मैं आधे सेर भजन करूँगा तो पत्नी कहती , मैं सेर करुँगी । परस्पर होड़ लग जाती । हमें भी इसी प्रकार तेजीसे भजन करना चाहिये । भजन करते-करते क्या स्थिति होती है, इसपर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
वाग् गद्गादा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।

'मेरा नाम-गुण-कीर्तन करते समय जिसका गला भर आता है, हृदय द्रवित हो जाता है, जो बार-बार मेरे प्रेममें आँसू ढालता है, कभी हँसने लगता है, कभी लाज-शर्म छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, ऐसा मेरा भक्त त्रिलोकीको पवित्र कर देता है ।'

टिप्पणी- बड़गड़ै--तेजीसे
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
-'साधन-सुधा-सिन्धु'पुस्तकसे