।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-९

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
इसी प्रकार रामगीतामें भी कहा हैं-

यः सेवते मामगुणं गुणात्परं

हृदा कदा वा यदि व गुणात्मकम् ।

सोऽहं स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्

पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ॥

'जो मेरे निर्गुणस्वरूपकी मनसे उपासना करता है अथवा कभी-कभी मायिक गुणोंसे अतीत मेरे सगुणस्वरूपकी भी सेवा-अर्चा करताहै, वह मेरा ही स्वरुप है । वह अपनी चरण-रजके स्पर्शसे सूर्यकी भाँती तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है ।'

ऐसे भगवान् के प्यारे भक्त भगवान् की स्मृतिमें आनंद-विभोर होकर घूमते हैं तो उनके दर्शनसे ही वैराग्य हो जाता है । जिस गलीमें होकर वे निकल जायँ, उधर ही वैराग्य और भगवत्प्रेमकी गंगा बह जाय । सुतीक्ष्ण-जैसे भक्तोंकी स्मृति हो जाय तो वैराग्य हो जाय । भगवान् भी तरु-ओटसे छिपकर देखते हैं । क्यों ? अपने ध्यानमें निमग्न भक्तको देखकर वे भी मस्त हो गये और छिपकर देखने लगे ।

साधन करनेसे अंतःकरण निर्मल होता है । फिर उससे वैराग्य होता है । इस प्रकारका वैराग्य विचारसे होनेवाले वैराग्यसे भी ऊँचा है ।

परमात्माकी प्राप्ति हो जानेपर होनेवाला वैराग्य बहुत ही अलौकिक है, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता; उसे न तो राग कह सकते हैं न वैराग्य ही । ऐसा विलक्षण वैराग्य परमात्मप्राप्त महापुरुषोंका ही होता है । ब्रह्मलोकतकके कभी कैसे ही कितने ही भोग क्यों न प्राप्त हों, उनके अंतःकरणमें रागकी, गन्धकी भी कभी जागृती होनेकी सम्भावना नहीं रहती; क्योंकि जब एक परमात्मतत्वके सिवा अन्य सत्ता ही मिट जाती है, तब किसके प्रति राग हो । पदार्थोंमें सत्ता न रहनेके कारण उनको परमात्मतत्त्वके सिवा कहीं रस या सार कुछ भी प्रतीत नहीं होता । उनके अंतःकरणमें अंतःकरणसहित संसारका मृगतृष्णा-जलकी भाँती तथा नींदसे जागनेपर स्वप्नकी भाँती अत्यन्त अभाव और परमात्मतत्वका भाव नित्य-निरन्तर दृढ़ताके साथ स्वाभाविक ही बना रहता है । फिर परमात्मतत्त्वके सिवा कुछ रहता ही नहीं ।

उस अनिर्वचनीय स्थितिको प्राप्त करनेके लिए वैराग्यवान् पुरुषों और भगवत्प्राप्त पुरुषोंका संग करना चाहिये । उनके शब्दोंसे, उनकी क्रियाओंसे शिक्षा लेकर हमें तेजीसे चलना चाहिये । संसारके पदार्थोंमें कभी किसीको सुख हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । ऐसा विचारकर भक्तिमार्गीको भगवान् में मन लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये तथा ज्ञानमार्गीको चित्तसे पदार्थोंकी सत्ताको मिटाकर एक सच्चिदानन्दघन पूर्ण ब्रह्म परामात्मा ही है-ऐसा दृढ़ निश्चय निरन्तर रखना चाहिये ।

-'साधन-सुधा-सिन्धु'पुस्तकसे
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