।। श्रीहरिः ।।

सेवाकी महत्ता-१

एक परमात्मतत्त्व ही ऐसा है, जिसको जो चाहे, उसको वह मिल जाय । धन, संपत्ति, वैभव, मान, आदर, निरोगता आदिको जो चाहे, उसको ये मिल जायँ—यह नियम नहीं है । ये धन, सम्पत्ति आदि सबको नहीं मिल सकते, मिलेंगे तो थोड़े-बहुत मिलेंगे, एक समान नहीं मिलेंगे । परन्तु परमात्मतत्त्व सबको मिलेगा, एक समान मिलेगा और जो चाहे, उसको मिलेगा; क्योंकि उसका सबके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जीव परमात्माका साक्षात् अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) इसलिये उसका परमत्मापर पूरा हक लगता है । जैसे, माँपर सब बालकोंका हक लगता है, सब बालक अपनी माँकी गोदीमें जा सकते हैं । ऐसे ही परमात्मा सबके माता-पिता हैं—‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।’ वे सदासे ही सबके माता-पिता हैं और सदा ही रहेंगे, इसलिये उनकी प्राप्तिमें कोई भी मनुष्य अयोग्य नहीं है, अनधिकारी नहीं है, निर्बल नहीं है । अतः किसीको भी परमात्मतत्त्वसे हताश होनेकी किंचितमात्र भी गुंजाईश नहीं है । कितनी विलक्षण बात है !

मैंने जो पुस्तकोंमें पढ़ा है, सुना है, विचार किया है, उससे मेरे भीतर यह बात दृढतासे बैठी हुई है कि किसी वस्तु, अवस्था, परिस्थिति, घटना, क्रिया, आदिकी महिमा नहीं है, प्रत्युत उनके सदुपयोगकी महिमा है । हमारी कैसी ही बुद्धि हो, कैसी ही परिस्थिति हो, कैसी ही अवस्था हो, कैसा ही संयोग हो, उसीका ठीक तरहसे सदुपयोग किया जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाय । कारण कि मनुष्यजन्म मिला ही इसके लिये है ।

कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(मानस ७/४४/३)

बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभुने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है तो क्या भगवान् की कृपा निष्फल होगी ? भगवान् की कृपा कभी निष्फल नहीं होती । हाँ, इतनी बात है कि भगवान् ने मनुष्यको स्वतन्त्रता दी है । इस स्वतन्त्रताका वह चाहे जो उपयोग कर सकता है, चाहे इसका सदुपयोग करके परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर ले, अपना कल्याण करले और चाहे इसका दुरुपयोग करके चौरासी लाख योनियोंमें अथवा नरकोंमें चला जाय । वास्तवमें यह स्वतन्त्रता भगवान् ने मनुष्यको अपना कल्याण करनेके लिये दी है । अतः मनुष्य क्या करे ? इसके भीतर इस बातकी लगन लग जाय कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कैसे हो ? रामायणमें आया है—

एक बानी करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस ३/१०/४)

भगवान् का एक स्वाभाव है, एक बाण है कि जिसका एक भगवान् के सिवाय दूसरा कोई सहारा नहीं है, वह भगवान् को बहुत प्यारा लगता है । इसलिये भगवान् ने अर्जुनको पूरी गीता सुनकर कहा—‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६), तेरेसे और कुछ न हो तो एक मेरी शरणमें आ जा । ‘माम् एकम्’ का अर्थ यह नहीं है कि भगवान् पाँच-सात हैं और उनमेंसे एककी शरण आ जा, प्रत्युत यहाँ इसका अर्थ है—अनन्य शरण । अर्जुनने कहा था कि मैं धर्मका निर्णय नहीं कर सकता—‘धर्मसम्मूढचेताः’ (२/७), तो भगवान् कहते हैं कि तेरेको धर्मका निर्णय करनेकी जरुरत नहीं है, तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोडकर एक मेरी शरणमें आ जा—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६) । अतः ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ और आप मेरे हो ।’ संसारकी कोई वस्तु, कोई प्राणी मेरा नहीं है और मैं किसीका नहीं हूँ—इस प्रकार भगवान् के शरण हो जायँ ।

यहाँ एक बात समझनेकी है कि संसारके लोग (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि) आपसे न्याययुक्त आशा रखते हैं और आप उसको पूरी कर सकते हो तो उनकी वह आशा आप पूरी कर दो अर्थात् उनकी सेवा कर दो । केवल सेवा करनेके लिये ही मात्र संसारके साथ सम्बन्ध रखो । संसारसे लेनेके लिये सम्बन्ध मत रखो; क्योंकि संसारकी कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है और आप स्थायी हैं । अतः संसारकी कोई भी वस्तु आपके साथ रहनेवाली नहीं है । इसलिये जितने आपके सम्बन्धी या कुटुम्बी कहलाते हैं, वे चाहे शरीरके नाते हों, चाहे देशके नाते हों, चाहे और किसी नाते हों, उनकी सेवा कर दो । कारण कि आपके पास जो वस्तुएँ हैं, वे उनकी हैं, उनके हककी हैं । उनका हक उनको दे दो । उनसे लेनेकी इच्छा रखोगे तो आपपर उनका ऋण हो जायगा । ऋण होनेसे मुक्ति नहीं होगी, कल्याण नहीं होगा । उनकी सेवा करनेसे कल्याण होगा । अतः संसारके साथ सम्बन्ध केवल उसकी सेवाके लिये ही रखना है, अपने लिये नहीं । सेवाके लिये सम्बन्ध रखोगे तो सब राजी हो जायँगे । कुटुम्बी नाराज तभी होते हैं, जब उनसे हम कुछ लेना चाहते हैं । अगर उनपर अपना हक न मानकर केवल उनकी सेवा ही करना चाहेंगे तो कोई नाराज नहीं होगा । अतः संसारमें रहनेका बढ़िया तरीका भी यही है और मुक्त होनेका तरीका भी यही है । दोनों हाथोंमें लड्डू हैं—‘दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें’ अर्थात् संसार भी राजी हो जाय और परमात्मा भी प्रसन्न हो जायं, जिससे आपका कल्याण हो जाय !

आपका उद्देश्य केवल परमात्माकी प्राप्ति करना है तो बस, परमात्माके शरण हो जाओ । संसारका आश्रय छोड़ दो । अपनी शक्तिके अनुसार संसारकी सेवा कर दो । सेवा करनेसे संसार राजी हो जायगा और प्रभुके चरणोंकी शरण होनेसे प्रभु प्रसन्न हो जायँगे तथा हमारा कल्याण स्वतः ही हो जायगा । अपने कल्याणके लिये नया उद्योग नहीं करना पड़ेगा । कितनी सरल और सीधी बात है ।

लेनेकी इच्छासे मनुष्यका संसारके साथ सम्बन्ध जुडता है और देनेकी इच्छासे सम्बन्ध टूटता है—यह बड़ी मार्मिक बात है । लेनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध बाँधनेवाला होता है और देनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध मुक्त करनेवाला होता है । इसलिये सेवा-समितिवाले मेला-महोत्सवमें सबका प्रबन्ध करते हैं, सबकी सेवा करते हैं । कोई बीमार हो जाय तो उसे कैम्पमें ले जाते हैं और उसका इलाज करते हैं, मर जाय तो दाह-संस्कार कर देते हैं, पर रोता कोई नहीं । जहाँ ‘सेवा करनेमात्रका सम्बन्ध होता है, वहाँ रोना नहीं होता । जहाँ कुछ-न-कुछ लेनेकी आशासे सम्बन्ध जुडा हुआ है, वहीं रोना होता है ।’ लेनेकी इच्छा ही गुणोंका संग है, जिससे जन्म-मरण होता है—

कारणं गुणसंगोस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
(गीता १३/२१)

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे