।। श्रीहरिः ।।

सेवाकी महत्ता-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
सेवा करनेका भाव असंगता लानेवाला है । अपने धर्मका, कर्तव्यका पालन करोगे, दूसरोंकी सेवा करोगे तो वैराग्य पैदा होगा—‘धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना’ (मानस ३/१६/१) । जैसे स्वायम्भुव मनुने अपना कोई स्वार्थ न रखकर धर्मसहित प्रजाका पालन किया, उसका हित किया तो उनको वैराग्य हो गया—

होई न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन ।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥
(मानस १/१४२)

वैराग्य होनेपर वे स्त्रीसहित वनको चले गये । उन्होंने प्रजाके हितके लिये राज्य किया, इसीलिए उन्हें वैराग्य हुआ । अगर वे अपने लिये राज्य करते तो उन्हें वैराग्य नहीं होता । जहाँ लेनेकी इच्छा होती है, वहाँ राग पैदा होता है । राग अज्ञानका चिह्न है, अज्ञानकी खास पहचान है—‘रागो लिङ्गमबोधस्य’ । जो रागी होता है, वह अज्ञानी होता है ।

सेवा करनेसे सम्बन्ध जुडता है, जो कुछ लेना चाहता है और लेना वही चाहता है, जो शरीर और पदार्थोंके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’ का सम्बन्ध रखता है । जिसको सेवक कहलानेकी भी इच्छा नहीं है, प्रत्युत केवल दूसरोंको सुख पहुँचे, आराम पहुँचे, उनका भला हो, उनका कल्याण हो—इसके लिये ही तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, बुद्धिसे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे सबको सुख-ही-सुख पहुँचाता है, मनमें सबका हित-ही-हित करनेका भाव रखता है, वह मुक्त हो जाता है । जैसे, पानीमें रहकर पानीको अपनी ओर लोगे तो डूब जाओगे; और हाथोंसे, लातोंसे मारते रहोगे तो तर जाओगे । इसी तरह इस संसार-समुद्रमें जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है और जो देना-ही-देना चाहता है, वह कभी नहीं डूबता ।
भगवान् और उनके भक्त (सन्त-महात्मा) बिना कारण सबकी सेवा करनेवाले हैं—

हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
(मानस ७/४७/३)

इसलिये वे बँधते नहीं । वे बँधे क्यों; उनके तो दर्शनसे ही मुक्ति हो जाती है ! कारण कि उनमें स्वार्थ है ही नहीं, किसीसे कुछ लेना है ही नहीं, प्रत्युपकारकी इच्छा है ही नहीं । इसलिये सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता ।

श्रोता—भरत मुनिने दया करके हरिणके बच्चेका पालन किया, पर अगले जन्ममें वे हरिण बन गये, ऐसा क्यों ?

स्वामीजी—पहले भरत मुनिका उद्देश्य तो सेवा करनेका ही था, पर बादमें उनका हरिणके बच्चेपर मोह हो गया । हरिणके बच्चेपर उनका इतना अधिक मोह हो गया कि कभी वह दिखायी नहीं देता तो वे उसके वियोगमें ऐसे व्याकुल हो जाते, जैसे कोई पुत्रके वियोगसे व्याकुल होता है । वह ऐसे खेलता था, ऐसे गोदीमें आता था, ऐसे बोलता था, ऐसे शरीर खुजलाता था, ऐसे फुदकता था—इस तरह वे उसका चिन्तन करने लगते थे । इसी मोहके कारण उनको अगले जन्ममें हरिण बनना पड़ा, दयाके कारण नहीं । उनको मोह दयासे नहीं हुआ, प्रत्युत भूलसे हुआ । वास्तवमें मोह तो पहलेसे ही था, वही मोह दयाका रूप धारण करके आ गया । मोहके कारण ही बन्धन होता है । दया-परवश होकर सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता ।

अस्सी-नब्बे, सौ वर्षका कोई आदमी मर जाय तो उसके लिये दुःख नहीं होता; परन्तु पचीस वर्षका कोई जवान आदमी मर जाय तो दुःख होता है । जरा सोचो कारण क्या है । बड़े-बूढ़े तो विशेष बुद्धिमान् और अनुभवी होते हैं, उनका अध्ययन बहुत होता है, इसलिये उनसे ज्यादा लाभ लिया जा सकता है; फिर भी उनके मरनेका दुःख इसलिये नहीं होता कि अब उनसे कुछ लेनेकी इच्छा नहीं रही । भीतर यह भाव रहता है कि अब उनसे मिलेगा कुछ नहीं, इसलिये वह मर जाय तो कोई हर्ज नहीं । मैंने खुद लोगोंके मुखसे यह सुना है कि बुढेका मरना तो ब्याहकी तरह है । ऐसे ही कोई बीस वर्षका आदमी है और पाँच वर्षतक बीमार-ही-बीमार रहा; सब वैद्योंने, डाक्टरोंने जवाब दे दिया कि अब यह जीनेवाला नहीं है और पचीस वर्षकी उम्रमें वह मर गया तो उसके मरनेका भी दुःख नहीं होता । कारण कि दुःख तभी होता है, जब उससे कुछ-न-कुछ मतलब रहता है, सेवाकी आशा रहती है । यह आशा ही बाँधनेवाली है । जो आशा नहीं रखता, वह बँधता नहीं, उसको कोई बाँध सकता ही नहीं ।

कोई सम्बन्धी मर जाय तो उसके पीछे श्राद्ध करते हैं, दान, पुण्य करते हैं । इसका अर्थ यह है कि जो उससे लिया था, वह कर्जा उतर जाय । उससे जितना सुख लिया है, उतनी ही उसकी याद आती है, उतना ही हमें उसके वियोगका दुःख होता है । छोटे बच्चेको गोदीमें खिला करके जो सुख लिया है, उसका भी नतीजा दुःख ही होगा । सांसारिक सुखका नतीजा दुःख ही है । सांसारिक सुख दुःखोंकी जड़ है । उस सुखको लोगे तो बन्धन होगा ही । अगर वह सुख नहीं लोगे, प्रत्युत सुख दोगे तो किसीकी ताकत नहीं कि आपको बाँध दे । जहाँ कुछ-न-कुछ स्वार्थ है, मनमें सुख, आराम, मान, बड़ाई आदि लेनेकी इच्छा है, वहींपर बन्धन है । मेरेको व्याख्यान देते हुए वर्ष बीत गये, पर बन्धनकी जड़ कहाँ है—इसका पता जल्दी नहीं लगा । पीछे इसका पता लगा कि मनमें कुछ-न-कुछ लेनेकी इच्छा ही बन्धनकी जड़ है । ऐसी दुर्लभ बात है यह ! अगर संसारकी किसी चीजको देखकर राजी होते हैं तो यह भी सुखका भोग है, जो बाँधनेवाला है । अनुकुलताकी इच्छा करेंगे तो दुःख आयेगा ही । इसलिये हरदम सावधान रहो कि किसीसे सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है, मान नहीं लेना है, बड़ाई नहीं लेनी है । हमें किसीसे कुछ लेना है ही नहीं । जहाँ लेना हुआ कि फँसे ! केवल देना-ही-देना है । सेवा-ही-सेवा करनी है । सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और लेनेकी इच्छा न रखनेसे नया ऋण नहीं चढ़ेगा तो हम मुक्त हो जायँगे ।


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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