।। श्रीहरिः ।।

कल्याणका सुगम उपाय
अपनी मनचाहीका त्याग-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जब जेलमें व्याख्यान देनेका काम पड़ा तो कैदीयोंको मैंने कहा कि आपने जो काम किये हैं, वे स्वतंत्रतासे,अपनी रुचिसे किये हैं, पर जेल पराधीनतासे, बिना रुचिके भोगते हैं । तो दुनियामें सब आदमी कैदी हैं । वे अपनी मरजीसे काम करते है और उसका फल पराधीन होकर भोगते हैं । नरक और चौरासी लाख योनियों—यह कैदखाना है । यह कैदखाना क्यों मिलता है ? कि अपनी मनचाही चलाना चाहते हैं । मनमानी होगी कि नहीं होगी—इसमें तो सन्देह है, पर कैद होगी, दुःख भोगना पड़ेगा—इसमें सन्देह नहीं है । इसलिये अगर आप कर सकें तो कुटुम्बियोंके मनकी बात करें । उनकी बात न्याययुक्त हो; शास्त्र, व्यवहार आदिकी दृष्टिसे अनुचित न हो और हमारी सामर्थ्यके अनुसार हो, तो उसे पूरी कर दो । इससे बहुत विशेष लाभ होगा । कल्याण हो जायगा, उद्धार हो जायगा ! परन्तु उनके अन्यायकी बात पूरी नहीं करनी है; क्योंकि ऐसा करनेमें उनका नुकसान है, फायदा नहीं है । उसका हित भी साथमें चाहिये ।

एक सुनी हुई बात है । सच्ची-झूठी तो रामजी जाने, सुनी हुई जरुर है । एक सन्त थे, चुपचाप रहते और उनसे कोई काम कराता तो वह कर देते । यहाँतक कि स्त्रियाँ गारा तैयार करके दे देतीं और कहतीं बाबाजी, आप लीप दो, तो वे लीप देते । उनका पानीका घड़ा उठवा देते, घर पहुँचा देते, झाड़ू लगा देते । जो कहतीं वह कर देते । दूसरा खिला दे तो खिला दे, नहीं तो उसकी मरजी । एक स्त्रीकी सन्तान नहीं थी । उसने बाबाजीकी बहुत सेवा की । उसने खिलाया तो अच्छी तरहसे खा लिया, कपड़ा पहनाया तो कपड़ा पहन लिया । वे आरामसे रहने लगे । कुछ दिनोंके बाद उसने अपनी शय्या बिछा दी और इच्छा प्रकट की कि मेरी सन्तान हो जाय । बाबाजीने कह दिया—‘ना’ । वह बोली कि आप तो जैसा कहें, वैसा करते हो । बाबाजी बोलते नहीं थे, पर बोल दिये—‘बस, यहाँतक ही ।’ मतलब यह कि यहाँतक ही करता हूँ, इससे आगे नहीं, व्यभिचारतक नहीं । ऐसा कहकर बाबाजी वहाँसे चल दिए । अतः वहींतक करना है, जहाँतक उचित होता है । जहाँ अनुचित होता है, वहाँ कह दिया कि नहीं, यहाँतक ही करता हूँ । जिसमें अपना सुख-भोग हो और दूसरेका अहित हो, वह काम नहीं करना है ।

गीता कहती है—‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगरुस्तदोच्यते ।।’ (गीता ६/४) अर्थात् अपने सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग करनेवाला योगी होता है । परन्तु अपने संकल्पोंका त्याग न करनेवाला ज्ञानयोगी,भक्तियोगी, कर्मयोगी, हठयोगी, तपयोगी, राजयोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता—‘न ह्यसन्न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ।’ (गीता६/२) अगर दूसरोंके संकल्पको पूरा करना सीख जायँ तो अपने संकल्पोंका त्याग सुगमतासे हो जायगा । मेरे मनमें तो यही आया कि सुनानेवालोंके मनकी बात कहनी चाहिये, जिससे उनका भी कल्याण हो, मेरा भी कल्याण हो और कोई तीसरा आदमी सुने तो उसका भी कल्याण हो । अतः सबके साथ अपना दिनभरका, रात्रिभरका व्यवहार ऐसा ही हो । इससे आप सिद्ध हो जाओगे, योगारूढ़ हो जाओगे । यह बात कठीन भी नहीं है । पहले अपनी बात रखनेकी आदतके कारण यह कुछ समय कठिन मालूम देती है, फिर सुगम हो जाती है । अपने अभिमानके कारण कठिन दीखती है, वास्तवमें कठिन नहीं है । इसे सब कर सकते हैं; गृहस्थ, साधु, भाई, बहन, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि कोई क्यों न हो ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे