।। श्रीहरिः ।।


कल्याणका सुगम उपाय
अपनी मनचाहीका त्याग-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
हमारा मनचाहा होता है तो अभिमान आता है और मनचाहा नहीं होता है तो क्रोध आता है । अभिमान और क्रोध—दोनों ही आसुरी सम्पत्ति हैं । अतः अपना संकल्प रखनेवाला आसुरी सम्पत्तिसे बच नहीं सकता । आसुरी सम्पति बाँधनेवाली, जन्ममरणको देनेवाली है‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६/५) । अपना संकल्प नहीं रखे तो आसुरी सम्पत्ति आ ही नहीं सकती ।

मुक्ति जितनी सीधी-सरल है, उतना सरल कोई काम नहीं है ही नहीं । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग—सभी सरल हैं । कठिनता अपनी रुचिकी पूर्ति करनेमें है । इसके सिवाय और क्या कठिनता है ? बताओ । जितनी कठिनता आती है, वह इसीमें आती है, वह इसीमें आती है कि हमारी मनचाही बात हो जाय ।

अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ? तो भगवान् ने उत्तर दिया ‘काम एष’ (गीता ३/३७) अर्थात् कामना । कामना क्या ? मेरी मनचाही हो जाय—यही मूलमें कामना है । मेरेको व्याख्यान देते हुए भी वर्षोंके बाद यह बात मिली तो बड़ी प्रसन्नता हुई कि जड़ तो आज ही मिली है ! मनकी बात पूरी होनेमें स्वतन्त्रता मानते हैं, पर है महान परतन्त्रता;क्योंकि यह दूसरेके अधीन है । दूसरा हमारी बात पूरी करे—यह हमारे अधीन है क्या ? मुफ्तमें कोरी पराधीनता लेना है, और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १/१०२/३) ।

श्रोता—महाराजजी ! अपनी बात सत्य प्रतीत हो, न्यायके अनुकूल प्रतीत हो, तो उसपर अडिग रहे या न रहे ?
स्वामीजी—अगर वह दूसरोंके अधीन है तो उसमें अडिग मत रहो । हमारी बात सत्य है, न्याययुक्त है, कल्याणकारी है, वर्तमानमें और परिणाममें हित करनेवाली है, तो उस बातका हम अनुष्ठान करें । परंतु दूसरा भी वैसा ही करे—यह बिलकुल गलत है । इसमें हमारा अधिकार नहीं है ।

श्रोता—यह परिवारमें सब एक-दूसरेसे जुड़े रहते हैं । हमारी बात दूसरा नहीं मानेगा तो उसका बुरा असर सबपर पड़ेगा ।
स्वामीजी—वे न करें तो उनको दुःख पाना पड़ेगा । परन्तु उसमें हमारेको दोष नहीं लगेगा । हम अपनी ठीक बात कह दें, वे मान लें तो खुशीकी बात, न माने तो बहुत खुशीकी बात । ये दो बातें याद कर लो । न्याययुक्त, हितकी, कल्याणकारी बात है और उसको स्त्री, पुत्र, पोता, भतीजा आदि मान लें तो अच्छी बात, न मानें तो बहुत अच्छी बात । बहुत अच्छी बात कैसे हुई ? कि हम फँसेंगे नहीं । अगर वे हमारी बात मानते रहेंगे तो हम फँस जायँगे । मैंने तो यहाँ कलकत्तेमें कई वर्षों पहले कह दिया था कि आप मेरा कहना मानते तो मैं फँस जाता । यहाँसे बाहर जा ही नहीं सकता । पर आप कहना नहीं मानते हैं तो यह आपकी कृपा है, मैं खुला रहता हूँ । जो हमारा कहना मानता है, उसके वशमें होना ही पड़ेगा, पराधीनता भोगनी ही पड़ेगी । लोग घर छोडकर साधु-संन्यासी होते हैं, आप घरमें रहते हुए ही साधु-संन्यासी हो गये; क्योंकि घरवाले आपकी बात मानते ही नहीं । फिर भी जिसमें हमारा, दूसरोंका, सबका हित हो, यह बात कहनी है, चाहे दूसरा माने या न माने ।
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे
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