।। श्रीहरिः ।।

संकल्प-त्यागसे कल्याण-१

संसार अपने लिये नहीं है । जो अपने लिये संसारकी जरूरत नहीं मानता, वह संसारके लिये उपयोगी हो जाता है; और जो अपने लिये संसारकी जरूरत मानता है, वह संसारके लिये अनुपयोगी हो जाता है, संसारके कामका नहीं रहता । अतः घरमें रहो तो घरवालोंके लिये रहो, आश्रममें रहो तो आश्रमवालोंके लिये रहो, किसी समुदायमें रहो तो समुदायवालोंके लिये रहो, अपने लिये नहीं । उनके लिये हम कब होंगे ? जब अपना कोई संकल्प नहीं रखेंगे । अपना संकल्प रखेंगे तो हम पराधीन हो जायँगे । अपना संकल्प क्या है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है । परमात्माकी प्राप्ति होनी चाहिये—यह संकल्प नहीं है; यह तो आवश्यक तत्त्व है, मनुष्य जन्मका असली प्रयोजन है । संसारकी घटना ऐसी होनी चाहिये, ऐसी नहीं होनी चाहिये; ऐसी परिस्थिति आनी चाहिये, ऐसी परिस्थिति नहीं आनी चाहिये—यह जो चीज है न; यह संकल्प है । हमें मनुष्य-शरीर मिला है, वह परिस्थितिके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत परिस्थितियोंसे अतीत तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये मिला है । परिस्थितियोंसे अतीत जो तत्त्व है, वह किसी अवस्थाके अधीन नहीं है, किसी योग्यताके अधीन नहीं है, किसी विशेष व्यक्तिके अधीन नहीं है । वह स्वाधीन तत्त्व है । स्वाधीन तत्त्वकी प्राप्ति स्वाधीनतापूर्वक होती है । इसमें पराधीन नहीं रहना पडता । परन्तु संकल्प स्वाधीनतापूर्वक होता ही नहीं । हम भोग चाहते हैं, मान चाहते हैं, आदर चाहते हैं, आराम चाहते है, जीना चाहते हैं, लाभ चाहते हैं—यह परतन्त्र हैं, स्वतन्त्र नहीं है । इसकी पूर्तिमें परतन्त्रता रहेगी ही, स्वतन्त्रता हो ही नहीं सकती ।

संकल्पोंका कायदा यह है कि कई संकल्प पूरे होते हैं और कई पूरे नहीं होते । यह सबका अनुभव है । संकल्पोंका पूरा होना अथवा न होना हमारे अधीन नहीं है, भगवान् के विधानके अधीन है । हम अभिमान कर लेते हैं कि हमने इतना धन कमा लिया, हमारे इतने बेटा-पोता हैं, हमारे इतने श्रोता हैं आदि । परन्तु ये हमारे अधीन नहीं हैं । अगर संकल्पोंकी पूर्ति हमारे अधीन हो, तो फिर कोई संकल्प अधूरा रहना ही नहीं चाहिये, सभी संकल्प पूरे होने चाहिये । भगवान् का एक विधान है, उस विधानसे ही ये पूरे होते हैं । मनुष्यका काम है उस विधानका आदर करना । वह भगवान् के विधानका आदर करेगा तो उसका कल्याण हो जायगा । उसने भगवान् के विधानको स्वीकार कर लिया तो अब उसके कल्याणमें बाधा देनेवाला कोई है ही नहीं । उसका कभी अहित होता ही नहीं, सदा हित-ही-हित होता है । अतः अपना संकल्प न रखें ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे