।। श्रीहरिः ।।

संकल्प-त्यागसे कल्याण-३

जैसे बच्चेने कह दिया और आपने कर दिया, तो आपने कृपा करके उसका कहना मान लिया । ऐसे ही संत-महात्मा भी हमारेपर कृपा करके हमारा कहना मान लेते है । जिसमें हमारा अनिष्ट न हो,अहित न हो, ऐसी बात कर देते हैं । उनका अपना कोई संकल्प नहीं होता । इसलिये दूसरेके संकल्पके अनुसार काम करना है, अपना संकल्प नहीं रखना है । इसमें हमें बाधा किस बातकी ? इसमें हम स्वतन्त्र हैं, पर दीखती है परतन्त्रता—‘सर्वाथान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।’ (गीता १८/३३) हमारा संकल्प पूरा होता है, तो उसमें एक सुख मिलता है । वह सुख ही बाँधनेवाला है । उस सुखमें ही मनुष्य पराधीन होता है । जिसमें सुख मिलता है, उसका गुलाम हो जाता है । रुपयोंसे सुख मिले तो रुपयोंका गुलाम, परिवारसे सुख मिले तो परिवारका गुलाम, नौकरसे सुख मिले तो नौकरका गुलाम, चेलेसे सुख मिले तो चेलेका गुलाम—जिससे सुख मिले, उसका गुलाम हो ही जायगा । आपने यह कहावत सुनी होगी कि ‘गरज गधेको बाप करे ।’ आप गरज रखोगे तो गधेको बाप बनना पड़ेगा । गरज क्या है ? कि हमारे बात पूरी होनी चाहिये, हमारे मनकी होनी चाहिये—यही गरज है । अगर मनुष्य गरजका त्याग कर दे तो वह सबका शिरोमणि बन जाय ! परमात्माका स्वरुप हो जाय ! परमात्मा सबकी चाहना पूरी करते हैं, उनकी चाहना कोई पूरी क्या करे ? उनकी चाहना तो है ही नहीं । इतनी विलक्षण अवस्था हमारी सबकी हो सकती है । केवल अपने संकल्पका त्याग कर दें । त्याग नहीं करनेसे संकल्प तो पूरे होंगे नहीं । जो संकल्प पूरे होनेवाले हैं, वे त्याग करनेपर भी पूरे होंगे । वह तो भगवान् के विधानके अनुसार होगा ही—‘राम कीन्ह चाहहिं सोई होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ (मानस १/१२८/१) जो धन आनेवाला है, वह आयेगा; जो मान होनेवाला है, वह होगा । जो चीज आनेवाली है, वह आयेगी ही । हमें मिलनेवाली चीज दूसरेको कैसे मिलेगी ?—‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ।’ तो फिर उसकी गुलामी क्यों करें । जो नहीं आनेवाली है, उसकी कितनी हि गुलामी करो, वह नहीं आयेगी । फिर हम चिन्ता क्यों करें ? चिन्ता भगवान् करें—‘चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा आनन्द ।’ वे चिन्ता करें, न करें, उनकी मरजी, पर हम तो आनन्दमें रहें । अपना संकल्प रखनेसे ही सुखी- दुःखी होते है । अपना संकल्प न रखें तो क्यों सुखी-दुःखी हों ? हमें तो भगवान् की आज्ञाका पालन करना है, जो हमारा कर्तव्य है ।

श्रोता—संकल्पसे छुटनेका अत्यन्त सुगम उपाय क्या है ?

स्वामीजी—अत्यन्त सुगम उपाय है कि दूसरा मेरा कहना माने—यह आग्रह छोड़ दे । ‘मेरा कल्याण हो जाय’—यह एक ही उद्देश्य बन जाय । जैसे मनुष्य रुपये कमानेमें लग जाता है तो उसका अपमान करो, निंदा करो, किसी तरहसे तंग करो, वह सब सह लेता है । इन्सपेक्टर आ करके कई तरहसे तंग करता है तो कुछ रुपये देकर छुटकारा करता है । यह सब रुपयोंका लोभ कराता है । ऐसे ही कल्याणका लोभ हो जायगा तो यह बात सुगम हो जायगी । कल्याणका लोभ होनेपर फिर जिस तरहसे पारमार्थिक लाभ न हो, उस जगह टिक नहीं सकेंगे; जिस सत्संगमें पारमार्थिक लाभ न हो, उस सत्संगमें ठहर नहीं सकेंगे; जिस पुस्तकको पढ़नेसे पारमार्थिक लाभ न हो, वह पुस्तक पढ़ नहीं सकेंगे; जिस व्यक्तिके संगसे पारमार्थिक लाभ न हो, उस व्यक्तिका संग नहीं कर सकेंगे ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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