।। श्रीहरिः ।।

अपने साधनको


सन्देहरहित बनायें-१


अपने साधनको निर्मल बनना चाहिये अर्थात् अपनेमें साधन-विषयक कोई भी शंका नहीं रहनी चाहिये । शंका रहे तो पुस्तकोंसे, प्रश्नोत्तरसे उसको दूर कर लेना चाहिये । संसार सत्य है—ऐसा अगर अपनेको अनुभव होता है, तो इसी बातपर डटे रहो । इसमें कोई सन्देह हो तो उसको दूर करते रहो । उसपर विचार करते रहो । शंकाओंको मत रखो । अपनेमें शंका रखनी गलती है । अगर आत्माकी, ब्रह्मकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो । ईश्वरकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो । उसमें शंका मत रखो । यह बात मेरेको बहुत बढ़िया लगती है, इसलिये आपको कहता हूँ । जो हम साधन करते हैं, वह इस तरहसे करें कि अपने हृदयको साफ कर दें ।

आपको जो बात पसंद हो, वही पूछो । मैं उसीमें बात बताऊँगा । मैं अपना मत आपपर लादता नहीं कि मेरा मत मान लो, मेरा मत ठीक है । आपकी जो मान्यता हो, उसीको मैं पुष्ट कर दूँगा, उसीमें बढ़िया बात बता दूँगा । उसके अनुसार ही आप चलो तो सिद्धि हो जायगी । जैसे कोई संसारको सत्य मानता है । संसार बहता है, पर मिटता नहीं । संसार जन्मता-मारता है, पर है नित्य । ऐसी जिसकी मान्यता हो, उसको चाहिये कि विवेक-विरोधी कोई काम न करे । संसारको सच्चा तो माने, पर झूठ, कपट, बेईमानी करे—यह ठीक नहीं । कारण कि आपके साथ कोई झूठ, कपट, बेईमानी करे तो आपको अच्छा नहीं लगता । आपको कोई ठगे तो बुरा लगता है । आपकी कोई चीज चुरा ले तो बुरा लगता है । अतः ऐसा आप न करें । संसारको भले ही सच्चा मानते रहें, पर जिसको आप बुराई समझते हैं, जिसको दूसरा कोई अपने साथ करें—ऐसा नहीं चाहते, उस बुराईको आप बिलकुल छोड़ दें, तो सिद्धि हो जायगी ।

श्रोता— अपनेमें जो बुराई है, वह क्या अभ्यास करनेसे छूट जायगी ?

स्वामीजी—बुराई अभ्याससे नहीं छूटती, विचारसे छूटती है । अपनेमें जो बुराई आयी है, उसको सत्संगके द्वारा, शास्त्रोंके द्वारा, सन्तोंके द्वारा ठीक तरहसे समझ करके विचारपूर्वक त्याग दें । बुराई त्यागनेका अभ्यास नहीं होता । त्याग विचारसे होता है, अभ्याससे नहीं । अभ्याससे एक नयी स्थिति बनाती है; जैसे—हम रस्सेपर नहीं चल सकते, पर इसका अभ्यास करें तो नटकी तरह हम भी रस्सेपर चल सकते हैं ।

श्रोता—अगर कोई अपनेको अज्ञानी मानता है, तो वह क्या करे ?

स्वामीजी—अज्ञानी मानता है तो अज्ञानको दूर करना चाहिये । अज्ञान किसीको भी अच्छा नहीं लगता । किसीसे कहें कि तू अज्ञानी है तो उसे अच्छा लगेगा क्या ? जब अज्ञान आदमीको अच्छा नहीं लगता तो वह अपनेको अज्ञानी कैसे मानेगा ? अपनेमें ज्ञानका अभिमान हो सकता है, अपनेमें अज्ञता रह सकती है, पर अपनेको सर्वथा अज्ञानी नहीं मान सकता, क्योंकि यह परमात्माका अंश है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे