।। श्रीहरिः ।।

सुख-लोलुपताको

मिटानेका उपाय-१

अगर आप संयोगजन्य (सांसारिक) सुखकी आसक्ति मिटा दें तो अभी परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाय । संयोगजन्य सुखमें जो आकर्षण है—यही खास बीमारी है । विचार करनेसे यह बात ठीक समझमें आती है कि यह संयोगजन्य सुखकी लालसा ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधा है । संयोगजन्य अर्थात् पदार्थों, व्यक्तियों, परिस्थितियोंके सम्बन्धसे पैदा होनेवाला सुख नित्य-निरन्तर कैसे रह सकता है ? कारण कि जो चीज पैदा होती है, वह नष्ट ही होती है । अगर संयोगसे मिलनेवाला सुख असह्य हो जाय, इस कृत्रिम सुखका त्याग कर दिया जाय, तो ‘सहज सुख’ है, वह प्रकट हो जायगा; क्योंकि यह स्वयं सहज सुख-स्वरुप है—

ईश्वर अंस जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११७/१)

जबतक संयोगजन्य सुखका त्याग नहीं करोगे, तबतक ‘हमारा सम्बन्ध संसारसे नहीं है, हमारा सम्बन्ध परमात्मासे है’—यह बात सुननेपर भी काममें नहीं आयेगी । ऐसे ही ‘संसार नाशवान् है, क्षणभंगुर है’—ऐसी बातें भले ही सुन लो, याद कर लो, पर अनुभव नहीं होगा । संसार असत्य है—ऐसा कहनेसे, सीख लेनेसे, याद करनेसे संसार छूटता नहीं । तात्पर्य है कि जबतक सांसारिक संयोगजन्य सुखकी आसक्ति रहेगी तबतक संसारकी असत्यताका अनुभव नहीं होगा । कारण कि आप संयोगजन्य सुखको सत्य मानकर ही उसको लेनेकी इच्छा करते हो, फिर संसारकी असत्यताका अनुभव कैसे कर सकते हो ?

इस बातका प्रत्यक्ष पता है कि संयोगजन्य सुख लेनेसे दुःख भोगना ही पडता है । ऐसा कोई प्राणी हो ही नहीं सकता, जो संयोगजन्य सुख तो भोगता रहे, पर उसको दुःख न भोगना पड़े । वह दुःखसे बच जाय—यह असम्भव है । फिर भी मनुष्य संयोगजन्य सुख क्यों नहीं छोडता ? वर्तमानमें संयोगसे जो सुख होता है, उसका जितना आकर्षण है, प्रियता है, विश्वास है, भरोसा है, उतना उसके परिणामपर विचार नहीं है । सुखभोगके परिणाममें क्या होगा—इसका वह विचार ही नहीं करता । उसके विचारमें आता भी है तो वह आँख मीच लेता है, उसको जानना नहीं चाहता । इसलिये भगवान् ने राजस सुखका वर्णन करते हुए बताया कि संयोगजन्य सुख आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है—विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेमृतोपमम् । परिणामे विषमिव....’ (गीता १८/३८) । इसके परिणामका विचार मनुष्य ही कर सकता है, पशु-पक्षी आदिमें इसका विचार करनेकी शक्ति ही नहीं है । देवतालोग तो सुख भोगानेके उद्देश्यसे ही स्वर्गमें रहते हैं, वे इसके परिणामको क्या जानेंगे ? मनुष्य-शरीर केवल परमात्मकी प्राप्तिके लिये ही मिला है; अतः इसमें परिणामका विचार करनेकी योग्यता है । इसलिये मनुष्यको हरदम संयोगजन्य सुखके परिणामकी तरफ दृष्टि रखनी चाहिये । हरदम सोचना चाहिये कि इसका परिणाम क्या होगा ? सांसारिक सुखका परिणाम दुःख होगा ही । भगवान् ने गीतामें कहा है—‘ये ही संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता ५/२२) अर्थात् जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके कारण हैं । संसारमें जितने भी दुःख होते हैं—नरक होते हैं, कैद होती है, अपयश होता है, अपमान होता है, रोग होते हैं, शोक होता है, चिन्ता होती है, व्याकुलता होती है, घबराहट होती है, बैचेनी होती है—ये सब-के-सब संयोगजन्य सुखकी लोलुपताका ही नतीजा है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे