।। श्रीहरिः ।।

सुख-लोलुपताको

मिटानेका उपाय-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सुख इतना बाधक नहीं है, जितनी सुखकी लोलुपता बाधक है । सुख मिल जाय, सुख ले लूँ—यह इच्छा जितनी बाधक है, उतना सुख बाधक नहीं है । कारणकी सुख बेचारा आता है और चला जाता है, पर उसकी लोलुपता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है । सुख नहीं है तो भी लोलुपता रहती है । सुख भोगते समय भी लोलुपता रहती है और सुख चला जाय तो भी लोलुपता रहती है । सुखमें जो खिंचाव रहता है, प्रियता रहती है, यही वास्तवमें बीमारी है । इसको मिटानेका सरल और श्रेष्ठ उपाय यह है कि दूसरोंको सुख कैसे हो—इसकी लगन लग जाय । आप कृपा करके आज ही इस बातको धारण कर लें कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे, दूसरोंका भला कैसे हो, दूसरोंका हित कैसे हो । अगर भीतरसे यह लगन लग जायगी कि दूसरोंको सुख कैसे हो तो अपने सुखकी इच्छा छूट जायगी ।

अपनी सुख-लोलुपताको मिटानेके लिये दूसरोंको सुख पहुँचाना है, गायोंको सुख पहुँचाना है, गरीबोंको सुख पहुँचाना है, सबको सुख पहुँचाना है । अपनी सुख-लोलुपताको मिटानेके उद्देश्यसे अगर सेवा की जाय तो मेरा विश्वास है कि जरूर लाभ होगा, करके देख लो । आजकल सेवा करनेवालोंमें भी सच्ची लगनसे सेवा करनेवाले मनुष्य बहुत कम देखनेमें आते हैं । वे सेवा तो करते हैं, पर उसमें दिखावटीपन रहता है । भीतरसे यह लगन नहीं होती कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे, दूसरोंका हित कैसे हो । गीता कहती है कि जो प्राणिमात्रके हितमें रत रहते हैं, वे भगवान् को प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥’ (१२/४) ।

अब दूसरेकी सेवा किस रीतिसे करें, यह बताता हूँ । दूसरेकी सेवा करते समय अपने मनकी प्रधानता बिलकुल न रखें । केवल दूसरेके मनकी तरफ देखें कि वे कैसे राजी हों । किस तरहसे उनको सुख पहुँचे । हमें तो कई वर्षोंके बाद यह बात पकड़में आयी कि ‘मेरे मनकी बात पूरी हो’—यही कामना है । इसलिये अपनी मनमानी छोडकर दूसरेकी मनमानी करें । जो न्याययुक्त हो, शास्त्र-सम्मत हो, अपनी सामर्थ्यके अनुरूप हो—ऐसी दूसरेके मनकी बात पूरी करें, तो आपमें अपनी कामनाको मिटानेकी सामर्थ्य आ जायगी ।

जहाँ रहो, जिस क्षेत्रमें रहो केवल यह लगन रखो कि दूसरेको सुख कैसे मिले, दूसरेका हित कैसे हो । इस बातका ख्याल रखो कि किसीको मेरे द्वारा कष्ट न पहुँचे, सुख पहुँचे । जैसे गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा—‘कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।’ (मानस ७/३० ख); कामीको जैसे स्त्री प्यारी लगती है और लोभीको जैसे पैसा प्यारा लगता है, ऐसे ही आपको दूसरोंका हित प्यारा लगाने लगे । फिर देखो तमाशा, चट काम होगा । वर्षोंतक विचार और चिन्तन करनेपर जो बात मिली है, वह बात बतायी है आपको !

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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