।। श्रीहरिः ।।
परमात्मा

तत्काल

कैसे मिले ?-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता—दूसरी लालसा किसपर टिकी हुई है ?

स्वामीजी—दूसरी लालसाएँ संयोगजन्य सुखभोगकी लालासपर टिकी हुई हैं । संयोगजन्य सुखभोगकी जो लालसा है, मनमें जो रुचि है, यही बाधक है; सुख इतना बाधक नहीं है । असली बीमारी कहाँ है—इस बातका हमें तो कई वर्षोंतक पता नहीं लगा था । व्याख्यान देते-देते कई वर्ष बीत गये तब पता चला कि मनमें संयोगजन्य सुखकी जो लोलुपता है । यहाँ है वह बीमारी ! हमें सुख मिल जाय—बस, इस इच्छामें ही सब बाधाएँ हैं । यही अनर्थका मूल है, यही जहर है ।

श्रोता—संयोगजन्य सुखकी लालसा कैसे छूटे ?

स्वामीजी—इसके छुडानेका बड़ा सरल उपाय है । परन्तु इसको छोड़ना है—इतनी इच्छा आपके घरकी, स्वयंकी होनी चाहिये; क्योंकि इसके बिना कोई उपाय काम नहीं देगा । इसको हम छोड़ना चाहते हैं—इतने आप तैयार हो जाओ तो ऐसा सरल उपाय मेरे पास है है, जिससे बहुत जल्दी काम बन जाय ! मैंने जो पुस्तकोंमें पढ़ा है, सन्तोंसे सुना है, वह बात कहता हूँ । भाई-बहनोंके लिये, पढ़े-लिखे और अनपढ़ आदमियोंके लिये, छोटे-बडोंके लिये, सबके लिये सीधा सरल उपाय है कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे ? दूसरोंको आराम कैसे मिले ? दूसरोंका भला कैसे हो ? —यह लालसा लग जाय तो अपने सुखकी लालसा छूट जायगी । करके देख लो, नहीं तो फिर मेरेसे पूछो कि यह तो हुआ नहीं ! युक्तिसंगत न दीखे तो कह दो कि यह युक्तिसंगत नहीं दीखता !

श्रोता—इसमें प्रारब्धकी बाधा है कि नहीं ?

स्वामीजी—इसमें प्रारब्धकी कोई बाधा नहीं है । इसमें प्रारब्ध मानना तो केवल बहानेबाजी है । प्रारब्ध ऐसा ही है, समय ऐसा ही आ गया, ईश्वरने कृपा नहीं की, अच्छे गुरु नहीं मिले, अच्छे महात्मा नहीं मिले, कोई बतानेवाला नहीं मिला, हमारा भाग्य ऐसा ही है—यह सब बहानेबाजी है, केवल परमात्मतत्त्वसे वञ्चित रहनेका उपाय है ।

ऐसा भी कभी हो सकता है कि ईश्वर अपनी प्राप्तिमें बाधा दे दे ? अथवा हमारा किया हुआ कर्म हमें बाधा दे ? या हमारी बनायी हुई वासना हमें बाधा दे दे ? कर्म हमने स्वयं किये हैं, वासनाएँ हमने स्वयं बनायीं है । जो चीज हमने पैदा कि है, उसको हम मिटा सकते हैं । गुरु कोई नहीं मिला तो गुरुकी जरूरत ही नहीं है । कोई महात्मा नहीं मिला तो महात्माकी जरूरत ही नहीं है । भगवान् ने जब अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्य-शरीर दिया है तो अपनी प्राप्तिकी सामग्री कम दी है क्या ? अगर गुरुकी जरूरत होगी तो भगवान् को स्वयं गुरु बनकर आना पड़ेगा ! वे जगद्गुरु हैं—‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।’ अच्छे महात्मा संसारमें क्यों रहते हैं ? तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुष संसारमें जीते हैं, तो क्यों जीते हैं ? संसारमें आकर उन्हें जो काम करना था, वह काम तो उन्होंने पूरा कर लिया; अतः उनको उसी वक्त मर जाना चाहिये था ! परन्तु वे अब जीते हैं तो केवल हमारे लिये जीते हैं । उनपर हमारा पूरा हक लगता है । जैसे बालक दुःख पा रहा है तो माँ जीती क्यों है ? माँ तो बालकके लिये ही है, नहीं तो मर जाना चाहिये माँको ! जरूरत नहीं है उसकी ! ऐसे ही वे महात्मा पुरुष संसारमें जीते हैं, तो केवल जीवोंके कल्याणके लिये जीते हैं । इसीलिए महात्मा हमें नहीं मिलेंगे तो वे कहाँ जायँगे ? उनको मिलना पड़ेगा, झख मारकर आना पड़ेगा; अगर हम सच्चे हृदयसे परमात्माको चाहते हैं, तो गुरुकी जरूरत होनेपर गुरु अपने-आप आ जायगा । भगवान् गुरुको भेज देंगे । ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं । यह एकदम सच्ची बात है । इसलिये प्रारब्ध और कर्म कुछ भी बाधक नहीं है । परमात्मप्राप्तिकी एक प्रबल इच्छा हो जाय तो अनन्त जन्मोंके पाप भस्म हो जायँगे ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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