।। श्रीहरिः ।।

भगवत्प्राप्ति

क्रियासाध्य नहीं-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् ने अपनेको प्राणिमात्रका सुहृद कहा है—‘सुहृदं सर्वभूतानां’ (गीता ५/२९), तो क्या दुष्ट-से-दुष्ट मनुष्यके भी भगवान् सुहृद नहीं हैं ? मैं कैसा ही क्यों न हूँ, क्या भगवान् मेरे सुहृद नहीं हैं ? अगर उनमें पक्षपात है तो वे भगवान् कैसे ? मैं दुष्ट हूँ, ज्यादा अयोग्य हूँ तो भगवान् की कृपा मेरेपर अधिक होगी—

‘पापी हुलास विशेषी अबकी बेर उबारियो ।’
(करुणासागर)

पापीके मनमें अधिक आनन्द होता है; क्योंकि भगवान् पतित-पावन हैं । इसलिये उनपर पतितोंका ज्यादा हक लागत है । माँ अपने अयोग्य लड़केका ज्यादा खयाल रखती है, तो क्या भगवान् मेरा खयाल नहीं रखेंगे ? वे मेरेपर कृपा न करें—यह हो ही नहीं सकता । इसलिये भजन-ध्यान करते हुए, नाम-जप करते हुए इस बात पर विशेष ध्यान दें कि जिह्वामें, नाममें, श्वासमें, मनमें, बुद्धिमें, अन्तःकरणमें, शरीरमें सब जगह परमात्मा परिपूर्ण हैं, पूरे-के-पूरे विद्यमान हैं । वे सबमें लबालब भरे हुए हैं । अब यह शंका होती है कि जब वे परमात्मा सबमें हैं, सब जगह मौजूद हैं तो फिर नाम-जप क्यों करते हैं ? नाम-जपके बिना हमारेको संतोष नहीं होता; इसलिये करते हैं । सनकादि ऋषियोंकी बात आपने सुनी होगी । वे चारों भाई एक समान ही ब्रह्मज्ञानी हैं । उनमें एक तो भगवान् की कथा सुनाता है और बाकीके तीन कथा सुनाते हैं । इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी वे भगवान् की कथा कहते रहते हैं; क्योंकि भगवान् की कथा ही ऐसी है—

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रथा अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
(श्रीमद्भागवत १/७/१०)

ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगन भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी और खींच लेते हैं ।

भगवान् हैं ही ऐसे कि उनके भजनके बिना साधक रह नहीं सकता । उतना रस, उतना आनन्द कहीं है ही नहीं । इसलिये हम उनका भजन करते हैं । भजनके द्वारा हम भगवान् को खरीद लेंगे—ऐसा भाव मत रखना । भगवान् तो अपनी कृपासे ही पधारते हैं । भजन-ध्यान, नाम-जप, कीर्तन आदिमें हमारा अनन्य प्रेम होना चाहये । कारण कि हमने संसारमें आसक्ति, प्रियता करके बड़ी भारी गलती की है । अब इस गलतीके संशोधनके लिये हमें भजन-ध्यान, नाम-जप आदि करना है । परमात्मा भजन-ध्यान आदिके अधीन हैं—ऐसी बात नहीं है । भगवान् स्वयं कहते हैं—

‘नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।’
(गीता ११/५३)

अर्थात् मैं वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदिके द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता । उपनिषदोंमें आता हैं—

‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।’
(कठोपनिषद १/२/२३)

अर्थात् प्रवचनसे, पण्डिताईसे, बहुत शास्त्रोंका बोध होनेसे परमात्मा नहीं मिलते । इसका आप उलटा अर्थ मत लेना कि सत्संग सुनना, पढ़ना, शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना खराब है । इनको तो करते ही रहना है । कहनेका भाव यह है कि इनके द्वारा भगवान् के ऊपर कब्जा नहीं कर सकते, अधिकार नहीं जमा सकते । जैसे, किसी वस्तुकी जो कीमत होती है, वह कीमत पूरी देनेपर उस वस्तुपर हमारा अधिकार हो जाता है । परन्तु भगवत्प्राप्तिके विषयमें ऐसी बात नहीं है । साधन करके भगवान् पर अधिकार नहीं किया जा सकता । उनपर अधिकार करनेका भी एक तरीका है । वह तरीका यह है कि सर्वथा भगवान् का ही हो जाय । तन, मन, वचन, विद्या, बुद्धि, अधिकार आदि किसीका भी किंचिन्मात्र भी सहारा न लेकर केवल भगवान् का ही हो जाय, तो भगवान् उसके वशमें हो जायँगे । परन्तु हमने साधना की है, हमने जप किया है, हमने कीर्तन किया है, हमने अभ्यास किया है, हम गीताको जानते हैं, हम अनेक शास्त्रोंको जानते हैं—ऐसी हेकड़ीसे भगवान् वशमें हो जायँ, यह असम्भव बात है । भगवान् वशमें होते हैं तो कृपा-परवश ही होते हैं । उनकी कृपा उसीपर होती है है, जो सर्वथा उनका हो जाता है । वे सस्ते हैं तो इतने सस्ते है कि ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ ।’—इतना सुनते ही भगवान् कहते हैं कि ‘हाँ बेटा ! मैं तेरा हूँ ’ आप कितनी ही विद्या, बुद्धि, योग्यता आदि लगा लो, उससे आपका ज्ञान बढ़ सकता है, आपमें पवित्रता आ सकती है, पर उससे भगवान् वशमें हो जायँ—यह बात नहीं होगी ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे