।। श्रीहरिः ।।

भगवत्प्राप्ति

क्रियासाध्य नहीं-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् हमारे हैं और हम भगवान् के हैं—यह सच्ची बात है । इसलिये भजन-ध्यान करते हुए इस बातको विशेषतासे याद रखें कि भगवान् अभी हैं, यहाँ हैं, मेरेमें हैं और मेरे हैं । अब निराशाकी जगह ही कहाँ है ? जैसे बालक मानता है कि माँ मेरी है, तो वह माँ पर अपना हक लगता है, पूरा अधिकार जमाता है । माँ इधर-उधर देखती है तो उसकी ठोड़ी पकडकर कहता है कि तू मेरी तरफ ही देख, बस । अतः माँको उसकी तरफ देखना पडता है । ऐसे ही हम भगवान् से कह दें कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो, इसलिये मेरी तरफ ही देखो । सन्तोनें कहा है—‘न मैं देखूँ और को, न तोहि देखन देउँ ।’ मैं औरको देखूँगा नहीं और तेरेको भी दूसरी तरफ देखने दूँगा नहीं । ऐसा होनेपर भगवान् वशमें हो जायँगे । हम जो दूसरी तरफ देखते हैं, यही बाधा है ।

एक बानि करुणानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस ३/१०/४)

इसलिये कोई कैसा ही हो, उसको भगवान् की तरफसे निराश नहीं होना चाहिये । आपका विश्वास न बैठे तो जप करो, कीर्तन करो, सब कुछ करो और विश्वास बैठे तो भी सब कुछ करो; क्योंकि यह तो करनेकी चीज है ! परन्तु जप-ध्यान आदिके द्वारा भगवान् पर कोई कब्ज़ा कर ले—यह बात नहीं है । हम अपने-आपको देकर ही उनपर कब्ज़ा कर सकते हैं । हम अपने-आपको संसारको दे रखा है, इसलिये दुःख पा रहे है । अगर अपने-आपको भगवान् को दे दें, तो निहाल हो जायँ ।

बिलकुल शास्त्र-सम्मत बात है कि क्रियाओंके द्वारा भगवान् पर कब्जा नहीं कर सकते । कितनी ही योग्यता प्राप्त कर लें, उनपर अधिकार नहीं जमा सकते । कारण कि इनके द्वारा अधिकार उसीपर होता है, जो इनसे कमजोर होता है । सौ रुपयोंके द्वारा हम उसी चीजपर कब्जा कर सकते हैं, जो सौ रुपयोंसे कम कीमतकी है । कोई चीज सौ रुपयोंकी है तो हम एक सौ पचीस रुपये देकर उस चीजपर कब्जा कर सकते हैं । ऐसे ही भगवान् को किसी योग्यतासे खरीदेंगे, तो उस योग्यतासे कमजोर भगवान् ही मिलेंगे । अतः ये विरक्त हैं, ये त्यागी हैं, ये विद्वान हैं, ये बड़े हैं, इनको भगवान् मिलेंगे हमारेको नहीं—यह धारणा बिलकुल गलत है । अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ, उनके बिना न रह सको, तो बड़े-बड़े पण्डित और बड़े-बड़े विरक्त तो रोते रहेंगे, पहले आपको भगवान् मिलेंगे । आप भगवान् के बिना रह नहीं सकोगे तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे । इसलिये परमात्माकी तरफसे किसीको कभी किंचिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये और संसारकी आशा नहीं रखनी चाहिये । कारण कि संसार आशामात्रसे नहीं मिलेगा । अगर मिल भी जायगा तो टिकेगा नहीं । अगर यह टिक भी जायगा तो आपका शरीर नहीं टिकेगा । संसार अभावस्वरूप हैं, इसलिये उसका सदा अभाव ही रहेगा । परमात्मा भाव-स्वरूप हैं, इसलिये उनका सदा भाव ही रहेगा, अभाव कभी होगा ही नहीं—यह सिद्धान्त है ।


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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