।। श्रीहरिः ।।

परमात्मप्राप्तिकी

सुगमता-१

मैं जो बात कहता हूँ, उसको आप कृपा करके मान लें । मैं ऐसी बात कहता हूँ, जो आपकी जानी हुई है । कोई नयी बात नहीं बताता हूँ । कोई भाई-बहन क्या ऐसा जानता है कि मैं पहले नहीं था और पीछे नहीं रहूँगा ? यह प्रश्न स्वयंके विषयमें हैं, शरीरके विषयमें नहीं । शरीर तो पैदा होनेसे पहले नहीं था और मरनेके बाद नहीं रहेगा । परन्तु मैं पहले नहीं था और पीछे नहीं रहूँगा तथा अब भी मैं नहीं हूँ—ऐसे अपने अभावका अनुभव भी किसीको होता है क्या ? अपने अभावका अनुभव किसीको कभी नहीं होता । मैं क्या था, क्या रहूँगा, क्या हूँ—ऐसा विचार तो हो सकता है, पर ‘मैं हूँ कि नहीं हूँ ?’—ऐसा विचार, सन्देह कभी नहीं होता ।

‘मैं हूँ’—यह जो अपनी सत्ता, अपना होनापन है, उसका कभी किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कभी कमी नहीं आती । जिसमें कोई कमी नहीं आती, उसके लिये क्या चाहिये ? कुछ नहीं चाहिये । कारण कि चाहना तो कमीमें ही होती है । जिसका कभी अभाव नहीं होता, जिसमें कभी कमी नहीं आती, जो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसके लिये करना क्या बाकी रहा ? जानना क्या बाकी रहा ? पाना क्या बाकी रहा ? परन्तु उस ‘है’ में स्थित न होकर, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है, उस शरीरमें आप स्थित हो जाते हैं, तब करना भी बाकी रहता है, जानना भी बाकी रहता है और पाना भी बाकी रहता है ।

इस बातको भी आप जानते हैं कि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, कभी भी एकरूप नहीं रहता । अगर शरीर एकरूप रहता, तो बचपनका शरीर अभी भी रहना चाहिये था । परन्तु बचपनका शरीर अभी नहीं है—यह सबका अनुभव है । बचपनका शरीर किसी एक दिनमें, एक महीनेमें अथवा एक वर्षमें नहीं बदला है, प्रत्युत प्रत्येक वर्षमें, प्रत्येक महीनेमें, प्रत्येक दिनमें, प्रत्येक घण्टेमें, प्रत्येक मिनटमें और प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है । अतः केवल बदलनेके पुञ्जका नाम शरीर है । शरीरादि पदार्थ स्थूल बुद्धिसे दीखते हैं । सूक्ष्म बुद्धिसे देखें तो केवल परिवर्तन-ही-परिवर्तन दीखेगा, वस्तु नहीं दिखेगी । जैसे पंखा चलता है तो गोल चक्कर दीखता है, पर वास्तवमें गोल चक्कर नहीं है । पंखेकी ताड़ी अलग-अलग है, पर तेजीसे घुमनेके कारण गोल चक्कर दीखता है । ऐसे ही बदलनेके कारण पदार्थ, शरीर दीखता है । यह शरीर है—ऐसा कहनेमें तो देरी लगती है, पर इसके बदलेमें देरी नहीं लगती । यह तो हरदम बदलता रहता है । परन्तु स्वयं (स्वरूप) नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । नित्य-निरन्तर रहनेवाले स्वयंको जब प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरके साथ मिला लेते हैं, तब कामना, इच्छा, वासना, तृष्णा आदि पैदा होती हैं । इसीसे सब अनर्थ होते हैं ।

अगर हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले नहीं होते, तो पहले किये हुए कर्मोंका फल आगे किसको भोगना पड़ेगा ? हम पहले थे, तभी तो पहले किये हुए कर्मोंका फल अब भोग रहे हैं; और हम आगे रहेंगे, तभी तो अभी किये हुए कर्मोंका फल आगे भोगना पड़ेगा । पहले हमने जो कर्म किये थे, वे परिवर्तनशील शरीरके साथ मिलकर ही किये थे और अब उनका फल भी शरीरके साथ मिलकर ही भोगेंगे । अगर हम शरीरके साथ न मिलें तो न पहलेका कर्म स्पर्श करेगा, न अभीका कर्म स्पर्श करेगा और न भविष्यका कर्म स्पर्श करेगा । कारण कि ‘है’ में कभी अभाव नहीं होता और अभाव हुए बिना उसमें दूसरी वस्तुका स्पर्श नहीं होता, प्रवेश नहीं होता । वह ‘है’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, इसलिये उसका अनुभव करनेवाले महापुरुषोंने कहा है—

है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥

‘है’ तो सबका द्रष्टा है, वह दीखे कैसे ? आँखसे सबको देखते हैं, पर आँख नहीं दीखती, परन्तु जिससे देखते हैं, वही आँख है । इसी प्रकार हम ‘है’ को अर्थात् अपने होनेपनको देख नहीं सकते; परन्तु जिससे यह सब दिख रहा है, वही ‘है’ है । इस बातको आप मान लें । आप कह सकते हैं कि हमें उसका अनुभव नहीं हो रहा है । अतः उसके अनुभवके लिये आप जिज्ञासा करें, व्याकुल हो जायँ ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे