।। श्रीहरिः ।।

मनुष्यका

वास्तविक सम्बन्ध-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
कितनी विलक्षण बात है कि संसारके वियोगका अनुभव जीवमात्रको है ! मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब नींद लेते हैं । तात्पर्य है कि संसारसे वियोग हरेक प्राणी चाहता है । संसारके संयोगमें तो कमीसे भी काम चल सकता है; जैसे—किसीको भोजन अच्छा मिलता है, किसीको भोजन अच्छा नहीं मिलता; किसीको मकान अच्छा मिलता है, किसीको मकान नहीं मिलता, इसमें सबकी विषमता है । दो मनुष्योंकी भी आराम-सामग्री एक समान नहीं होती । परन्तु नींद सबकी एक समान होती है । यहाँ एक बात सोचनेकी है कि नींदकी तरफ हमारी जो प्रवृत्ति होती है, उसमें हमें न कुछ उद्योग करना पडता है, न कुछ चिन्तन करना पडता है, न कुछ काम करना पडता है, न कुछ याद करना पडता है । तात्पर्य है कि कुछ न करनेसे नींद आ जाती है । नींदके लिये ऐसा नहीं है कि इतना उद्योग करो,तब नींद आयेगी !

नींदमें सबसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है । परन्तु संसारके साथ माने हुए सम्बन्धको पकडे हुए ही नींद लेते हैं, इसलिये जगनेपर फिर उसीमें (संसारमें) लग जाते हैं । फिर भी संसारके साथ माना हुआ सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता । अवस्था बदल जाती है, व्यक्ति बदल जाते हैं, देश बदल जाता है, काल बदल जाता है—यह सब तो बदल जाता हैं, पर संसारसे सम्बन्ध विच्छेद कभी नहीं बदलता । कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध तो हमारा माना हुआ है, अवास्तविक है, पर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद माना हुआ नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है । इसलिये संसारसे निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है । बालकपनसे सम्बन्ध-विच्छेद हुआ, जवानीसे हुआ, वृद्धावस्थासे हुआ, निरोगतासे हुआ, रोगीपनेसे हुआ, धनवत्तासे हुआ, निर्धनतासे हुआ और कई व्यक्तियोंसे संयोग होकर वियोग हुआ । इस प्रकार संसारका सम्बन्ध तो छिन्न-भिन्न होता ही रहता है; क्योंकि यह सम्बन्ध नकली है, माना हुआ है । हमने बड़ी भारी भूल यह की कि माने हुए सम्बन्धको तो सच्चा मान लिया, पर संसारसे जो सम्बन्ध विच्छेद हो रहा है, उसकी तरफ खयाल ही नहीं किया कि यह भी तो हमारा अनुभव है । संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे जितना सुख मिलता है, उतना पदार्थोंसे नहीं मिलता । अगर पदार्थोंसे सुख मिलता, तो नींद छूट जाती ।


जब भगवान् के भजनमें रस आने लगता है, तब नींद, भूख और प्यास भी छूट जाती है, इनकी भी परवाह नहीं रहती । नींद,भूख और प्यास शरीर-निर्वाहकी खास चीजें हैं, पर भजनमें इनको भी भूल जाते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा असली सम्बन्ध भगवान् के साथ है । असली सम्बन्ध जाग्रत हो जाय तो फिर नकली सम्बन्धको कौन रखना चाहेगा ? शरीर-संसारके साथ माने हुए नकली सम्बन्धोंको हम छोड़ दें तो आज ही निहाल हो जायँ ! सम्बन्धको छोडकर जाना कहीं नहीं है, न जंगलमें जाना है, न साधु बनना है । केवल यह मान लेना है कि यह संसार वास्तवमें हमारा नहीं है । हमारे तो केवल भगवान् ही हैं । व्यक्तियोंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनकी सेवा करनेके लिये है । वस्तुओंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये है । न तो हमारे लिये कोई व्यक्ति है और न हमारे लिये कोई वस्तु है । जो हमारे कहलाते हैं, उन माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, भौजाई आदिकी सेवा कर दो, बस । वस्तुएँ तो उनकी सेवाके लिये हैं और वे सेवनीय हैं । शरीर उनका ही है, इसलिये शरीरको उनकी सेवामें लगा दो । हमें उनसे कुछ लेना ही नहीं है । उनकी वस्तुओंको उन्हींकी सेवामें लगा देना है । इसीको कर्मयोग कहते हैं—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
(गीता २/४७)

‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोमें कभी नहीं । अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो ।’

खूब तत्परतासे, अच्छी तरहसे कर्म करना है; क्योंकि मनुष्य-शरीर सेवा करनेके लिये ही मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं । हमें जो विवेक मिला है, वह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये मिला है, शरीरके साथ चिपकनेके लिये नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे