।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका

आदर-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
शरीरके साथ हमारी एकता नहीं है, पर उसके साथ एकता मान ली और परमात्माके साथ हमारी एकता है, पर उसके साथ एकता नहीं मानी—यह केवल मान्यताका फर्क है और कुछ फर्क नहीं । हमने मान्यता गलत कर रखी है । शरीर बदलता है, पर आप नहीं बदलते । संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते । अतः न बदलनेवाले हम परमात्माके साथ एक है और बदलनेवाला शरीर संसारके साथ एक है—यह विवेक मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है । यह कभी मिट नहीं सकता ।

संसार और परमात्मा, हमारे शरीरका और हमारे स्वरूपका जो दो-पना (अलगाव) है, यह कभी मिटेगा नहीं । यह नित्य निरन्तर रहनेवाला है । परन्तु मनुष्य इस बातका आदर नहीं करता, इसको महत्त्व नहीं देता । ‘मैं शरीर हूँ’—इस बातको पकड़ रखा है । परन्तु शरीरके साथ एकताको अभीतक कोई पकडकर रख सका नहीं और रख सकता नहीं और रख सकेगा नहीं । अतः शरीर और संसार एक हैं तथा मैं और परमात्मा एक हैं । मैं और परमात्मा एक हैं—इस विषयमें मतभेद है । द्वैत-मतवाले परमात्माके साथ जातीसे एकता मानते हैं और अद्वैत-मतवाले स्वरूपसे एकता मानते हैं । परन्तु मैं और शरीर एक नहीं हैं—इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है । श्रीशंकराचार्य, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि नामोंसे अपने-अपने दर्शानोंमें परमात्माके साथ जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध माना है । परन्तु शरीरके साथ अपना सम्बन्ध किसीने भी नहीं माना है । शरीर-संसारके साथ हमारी एकता नहीं है—इस विषयमें सभी आचार्य, दार्शनिक, विद्वान एकमत हैं । जिस विषयमें सभी एकमत हैं, उस बातको आप मान लो । हम शरीर-संसारके साथ एक नहीं हैं, हम तो परमात्माके साथ एक हैं—यही ज्ञान है । इस ज्ञानको दृढ़तासे पकड़ लें; इसमें बाधा क्या है ?

शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण हम शरीरके सुखसे अपनेको सुखी मानते हैं । शरीरका मान होनेसे हम अपना मान मानते हैं । शरीरकी बड़ाई होनेसे हम अपनी बड़ाई मानते हैं । शरीरके निरादारसे हम अपना निरादर मानते हैं ।शरीरके अपमानसे हम अपना अपमान मानते हैं । वास्तवमें शरीरको कोई पीस डाले, तो भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ता । एक दिन इस शरीरको लोग जला ही देंगे, पर हमारा बाल भी बाँका नहीं होगा । हमारे स्वरूपका किञ्चिन्मात्र भी हिस्सा नहीं जलेगा, नष्ट नहीं होगा । अतः संसार हमारा निरादर कर दे, अपमान कर दे, निंदा कर दे, दुःख दे दे, शरीरका टुकड़ा-टुकड़ा कर दे तो क्या हो जायगा ? गीताने कहा है—‘यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ (गीता ६/२२) अर्थात् परमात्मस्वरूप आत्यन्तिक सुखमें स्थित मनुष्य बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता । किसी कारणसे शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जायँ, तो भी वह अपने स्वरूपसे विचलित नहीं होता, महान आनन्दसे इधर-उधर नहीं होता । हाँ, शरीरको पीड़ा हो सकती है, मूर्छा आ सकती है, पर दुःख नहीं हो सकता । इतना आनन्द सांसारिक वस्तुओंसे कभी नहीं हो सकता । परन्तु आपने मैं और शरीर दो हैं—इस बातका अनादर कर दिया और शरीरके साथ एक होकर उसके दुःखमें दुःख और सुखमें सुख मान लिया; इसको कृपा करके न मानें ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे