।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक साधु थे । उनकी खुराक बहुत थी । एक बार उनके शरीरमें रोग हो गया । किसीने उनसे कहा कि महाराज ! आप गायका दूध पिया करें, पर दूध वही पीयें, जो बछड़ेके पीनेपर बच जाय । उन्होंने ऐसा ही करना शुरू कर दिया । जब बछड़ा पेट भरकर अपनी माँका दूध पी लेता, तब वे गायका दूध निकालते । गायका पाव-डेढ़ पाव दूध निकलता, पर उतना ही दूध पीनेसे उनकी तृप्ति हो जाती । कुछ ही दिनोंमें उनका रोग मिट गया और वे स्वस्थ हो गये । जब न्याययुक्त वस्तुमें भी इतनी शक्ति है कि थोड़ी मात्रामें लेनेपर भी तृप्ति हो जाय, तो फिर जो वस्तु भावपूर्वक दी जाय, उसका तो कहना ही क्या है !

यह तो सबका ही अनुभव है कि कोई भावसे, प्रेमसे भोजन कराता है तो उस भोजनमें विचित्र स्वाद होता है और उस भोजनसे वृत्तियाँ भी बहुत अच्छी रहती है । केवल मनुष्यपर ही नहीं, पशुओंपर भी भावका असर पडता है । जिस बछड़ेकी माँ मर जाती है, उसको लोग दूसरी गायका दूध पिलाते हैं । इससे वह बछड़ा जी तो जाता है, पर पुष्ट नहीं होता । वही बछड़ा अगर अपनी माँका दूध पीता तो माँ उसको प्यारसे चाटती, दूध पिलाती, जिससे वह थोड़े ही दूधसे पुष्ट हो जाता । जब मनुष्य और पशुओंपर भी भावका असर पडता है, तो फिर अन्तर्यामी भगवान् पर भावका असर पड़ जाय, इसका तो कहना ही क्या है ! विदुरानीके भावके कारण ही भगवान् ने उसके हाथसे केलेके छिलके खाये । गोपियोंके भावके कारण ही भगवान् ने उनके हाथसे छीनकर दही, मक्खन खाया । भगवान् ब्रह्माजीसे कहते हैं—

नैवेद्यं पुरतो चक्षुषा गृह्यते मया ।
रसं च दासजिह्वायामश्नामि कमालोद्भव ॥

‘हे कमलोद्भव ! मेरे सामने रखे हुए भोगोंको मैं नेत्रोंसे ग्रहण करता हूँ; परन्तु उस भोगका रस मैं भक्तकी जिह्वाके द्वारा ही लेता हूँ ।’

ऐसी बात सन्तोंसे सुनी है कि भावसे लगे हुए भोगको भगवान् कभी देख लेते हैं, कभी स्पर्श कर लेते हैं । और कभी कुछ ग्रहण भी कर लेते हैं ।

जैसे घुटनोंके बलपर चलनेवाला छोटा बालक कोई वस्तु उठाकर अपने पिताजीको देता है तो उसके पिताजी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं और हाथ ऊँचा करके कहते हैं कि बेटा ! तू इतना बड़ा हो जा अर्थात् मेरेसे भी बड़ा हो जा । क्या वह वस्तु अलभ्य थी ? क्या बालकके देनेसे पिताजीको कोई विशेष चीज मिल गयी ? नहीं । केवल बालकके देनेके भावसे ही पिताजी राजी हो गये । ऐसे ही भगवान् को किसी वस्तुकी कमी नहीं है और उनमें किसी वस्तुकी इच्छा भी नहीं है, फिर भी भक्तके देनेके भावसे वे प्रसन्न हो जाते हैं । परन्तु जो केवल लोगोंको दिखानेके लिये, लोगोंको ठगनेके लिये मन्दिरोंको सजाते हैं, ठाकुरजी-(भगवान् के विग्रह-) का शृंगार करते हैं, उनको बढ़िया-बढ़िया पदार्थोंका भोग लगाते हैं तो उसको भगवान् ग्रहण नहीं करते; क्योंकि वह भगवान् का पूजन नहीं है, प्रत्युत रुपयोंका, व्यक्तिगत स्वार्थका ही पूजन है ।

जो लोग किसी भी तरहसे ठाकुरजीको भोग लगानेवालेको, उनकी पूजा करनेवालेको पाखण्डी कहते हैं और खुद अभिमान करते हैं कि हम तो उनसे अच्छे हैं; क्योंकि हम पाखण्ड नहीं करते, ऐसे लोगोंका कल्याण नहीं होता । जो किसी भी तरहसे उत्तम कर्म करनेमें लगे हैं, उनका उतना अंश तो अच्छा है ही । परन्तु जो अभिमानपूर्वक अच्छे आचरणोंका त्याग करते हैं, उसका परिणाम तो बुरा ही होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे