।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जो कोई आस्तिक पुरुष होता है, वह भले ही मूर्तिपूजासे पहरेज रखे, पर उसके द्वारा मूर्तिपूजा होती ही है । कैसे? वह वेद आदि ग्रंथोंको मानता है, उनके अनुसार चलता है तो यह मूर्तिपूजा ही है; क्योंकि वेद भी तो (लिखी हुई पुस्तक होनेसे) मूर्ति ही है । वेद आदिका आदर करना मूर्तिपूजा ही है । ऐसे ही मनुष्य गुरुका, माता-पिताका, अतिथिका आदर-सत्कार करता है, अन्न-जल-वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करता है तो यह सब मूर्तिपूजा ही है । कारण कि गुरु, माता-पिता आदिके शरीर तो जड़ हैं, पर शरीरका आदर करनेसे उनका भी आदर होता है, जिससे वे प्रस्सन होते हैं । तात्पर्य है कि मनुष्य कहीं भी, जिस-किसीका, जिस-किसी रूपसे आदर-सत्कार करता है, वह सब मूर्तिपूजा ही है । अगर मनुष्य भावसे मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता है तो वह भगवान् का ही पूजन होता है ।

एक वैरागी बाबा थे । वे एक छातके नीचे रहते थे और वहीं शालिग्रामका पूजन किया करते थे । जो लोग मूर्तिपूजाको नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह क्रिया (मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी । उन दिनों वहाँ हुक साहब नामका एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था । उस अफसरके सामने उन लोगोनें बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि । हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया । दूसरे दिन बाबाजी हुक साहबका एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लागे । वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल हैं, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि । लोगोंने पुनः हुक साहबसे शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है । हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो ? बाबाजीने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है । ऐसा कहकर बाबाजीने पुतलेको जूता मारा । हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है । बाबाजीने कहा कि आप इस पुतलेमें अर्थात् मूर्तिमें हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्रसे आपपर इतना असर पडता है । हमारे भगवान् तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अतः जो श्रद्धापूर्वक मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता है, उससे क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे ? मैं मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता हूँ तो यह भगवान् का आदर हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो । बाबाजी अपने स्थानपर चले गये ।

प्रश्न—कुछ लोग मन्दिरमें अथवा मन्दिरके पास बैठकर मांस, मदिरा आदि निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, फिर भी भगवान् उनको क्यों नहीं रोकते ?

उत्तर—माँ-बाप के सामने बच्चे उद्दण्डता करते हैं तो माँ-बाप उनको दण्ड नहीं देते; क्योंकि वे यही समझते हैं कि अपने ही बच्चे हैं, अनजान हैं, समझते नहीं हैं । इसी तरह भगवान् भी यही समझते हैं कि ये अपने ही अनजान बच्चे हैं; अतः भगवान् की दृष्टी उनके आचरणोंकी तरफ जाती ही नहीं । परन्तु जो लोग मन्दिरमें निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, निषिद्ध आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका दण्ड अवश्य ही भोगना पड़ेगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)



—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे