।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-७

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न–पहले कबीरजी आदि कुछ सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन क्यों किया ?

उत्तर–जिस समय जैसी आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुष प्रकट होकर वैसा ही कार्य करते हैं । जैसे, पहले शैवों और वैष्णवोंमें बहुत झगड़ा होने लगा, तब तुलसीदासजी महाराजने रामचरितमानसकी रचना की, जिससे दोनोंका झगड़ा मिट गया । गीतापर बहुत-सी टिकाएँ लिखी गयी हैं; क्योंकि समय-समयपर जैसी आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके हृदयमें वैसी ही प्रेरणा हुई और उन्होंने गीतापर वैसी ही टिका लिखी । जिस समय बौद्धमत बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने प्रकट होकर सनातनधर्मका प्रचार किया । ऐसे ही जब मुसलमानोंका राज्य था, तब वे मन्दिरोंको तोड़ते थे और मूर्तियोंको खण्डित करते थे । अतः उस समय कबीरजी आदि सन्तोंने कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे परमात्मा केवल मन्दिरमें या मूर्तिमें ही नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह व्यापक हैं । वास्तवमें उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं था, प्रत्युत लोगोंको किसी तरह परमात्मामें लगानेमें ही तात्पर्य था ।

प्रश्न—अभी तो वैसा समय नहीं है, मुसलमान मन्दिरोंको, मूर्तियोंको नहीं तोड़ रहे हैं, फिर भी उन सन्तोंके सम्प्रदायमें चलनेवाले मूर्तिपूजाका, साकार भगवान् का खण्डन क्यों करते हैं ?

उत्तर—किसीका खण्डन करना अपने मतका आग्रह है; क्योंकि दूसरोंके मतका खण्डन करनेवाले अपने मतका प्रचार करना चाहते हैं, अपनी प्रतिष्ठा चाहते हैं । अभी जो मन्दिरोंका, मूर्तिपूजाका, दूसरोंके मतका खण्डन करते हैं, वे मतवादी वस्तुतः परमात्माको नहीं चाहते, अपना उद्धार नहीं चाहते, प्रत्युत अपनी व्यक्तिगत पूजा चाहते हैं, अपनी टोली बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदायका प्रचार चाहते हैं । ऐसे मतवादियोंको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । जो अपने मतका आग्रह रखते हैं, वे मतवाले होते हैं और मतवालोंकी बात मान्य (माननेयोग्य) नहीं होती—
बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
(मानस १/११५/४)

ऐसे मतवाले लोग तत्वको नहीं जान सकते—
हरीया रत्ता तत्तका, मतका रत्ता नांहि ।
मत का रत्ता से फिरै, तांह तत्त पाया नाहिं ॥
हरीया तत्त विचारियै, क्या मत सेती काम ।
तत्त बसाया अमरपुर, मत का जमपुर धाम ॥

निराकारको माननेवाले साकार मूर्तिका खण्डन करते हैं तो वे वास्तवमें अपने इष्ट निराकारको ही छोटा बनाते हैं; क्योंकि उनकी धारणासे ही यह सिद्ध होता है कि साकारकी जगह उनका निराकार नहीं है अर्थात् उनका निराकार एकदेशीय है ! अगर वे मूर्तिमें भी अपने निराकारको मानते तो फिर वे साकारका खण्डन ही क्यों करते ? दूसरी बात, निराकारकी उपासना करनेवाले ‘परमात्मा साकार नहीं है, उनका अवतार भी नहीं होता, उनकी मूर्ति भी नहीं होती’—ऐसा मानते हैं; अतः उनका सर्वसमर्थ परमात्मा अवतार लेनेमें, साकार बननेमें असमर्थ (कमजोर) हुआ अर्थात् उनका परमात्मा सर्वसमर्थ नहीं रहा । वास्तवमें परमात्मा ऐसे नहीं हैं । वे साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं—‘सदसच्चाहम्’ (९/१९) । अतः विचार करना चाहिये कि हमें अपना कल्याण करना है या साकार-निराकारको लेकर झगड़ा करना है ? अगर हम अपनी रुचिके अनुसार साकारकी अथवा निराकारकी उपासना करें तो हमारा कल्याण हो जाय—
तेरे भावै जो करौ, भलौ बुरौ संसार ।
‘नारायन’ तू बैठिके, आपनौ भुवन बुहार ॥

अगर झगड़ा ही करना हो तो संसारमें झगड़ा करनेके बहुत-से स्थान हैं । धन, जमीन, मकान आदिको लेकर लोग झगड़ा करते ही हैं । परन्तु हम पारमार्थिक मार्गमें आकार झगड़ा क्यों छेड़ें ? अगर हम साकार या निराकारकी उपासना करते हैं तो हमें दूसरोंके मतका खण्डन करनेके लिये समय कैसे मिला ? दूसरोंका खण्डन करनेमें हमने जितना समय लगा दिया, उतना समय अगर अपने इष्टकी उपासना करनेमें लगाते तो हमें बहुत लाभ होता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे