।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-९

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न—भगवान् की स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ?

उत्तर—स्वयंभू मूर्ति बनती हो, तभी यह प्रश्न उठ सकता है कि स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ! स्वयंभू मूर्ति बनती ही नहीं । वह स्वयं प्रकट होती है, तभी उसका नाम स्वयंभू है, नहीं तो वह स्वयंभू कैसे ?

प्रश्न—अमुक मूर्ति स्वयंभू है अथवा किसीके द्वारा बनायी हुई है—इसकी क्या पहचान ?

उत्तर—इसकी पहचान हरेक आदमी नहीं कर सकता । जैसे किसी आदमीने किसी व्यक्तिको पहले देखा है और वह व्यक्ति फिर मिल जाय तो वह उसको पहचान लेता है, ऐसे ही जिसने भगवान् के साक्षात् दर्शन किये हुए हैं, वही स्वयंभू मूर्तिकी पहचान कर सकता है ।

प्रश्न—स्वयंभू मूर्ति और बनायी हुए मूर्तिके दर्शन, पूजन आदिकी क्या महिमा है ?

उत्तर—श्रद्धा-विश्वास हो तो ऋषियोंका दर्भमें और गणेशजीका सुपारीमें पूजन करनेसे भी लाभ होता है । ऐसे ही श्रद्धा-विश्वास हो, भगवद्भाव हो तो बनायी हुई मूर्तिके पूजन, दर्शन आदिसे भी लाभ होता है । परन्तु स्वयंभू मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास होनेसे विशेष और शीघ्र लाभ होता है जैसे—किसी सन्तकी लिखी पुस्तकको पढ़नेकी अपेक्षा उस सन्तके मुखसे साक्षात् सुननेसे अधिक लाभ होता है । संजयने भी गीताग्रंथके विषयमें कहा है कि मैंने इसको साक्षात् भगवान् के कहते-कहते सुना है (१८/७५) ।

प्रश्न—संसारके साथ सुगमतासे, सरलतासे, अनायास सम्बन्ध हो जाता है, वैसा भगवान् के साथ सम्बन्ध नहीं होता, इसमें क्या कारण है ?

उत्तर—इसका कारण यह है कि मनुष्य अपनेको शरीर मानता है । अपनेको शरीर माननेसे उसका संसारके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध हो जाता है; क्योंकि शरीरकी संसारसे एकता है । जिससे एकता (सजातीयता) होती है, उसके साथ अनायास सम्बन्ध जुड़ जाता है । जैसे जो अपनेकी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानता है, उसका ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिके साथ और जो अपनेको विद्वान, व्यापारी आदि मानता है, उसका विद्वान, व्यापारी आदिके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध जुड़ जाता है—‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’ । भगवान् तो प्रत्यक्ष दिखते नहीं और स्वयं अपनेको मूर्ति (शरीर) मानता है, तो उसके लिये मूर्तिमें भगवान् का भाव करना ही सुगम है । अतः जबतक शरीरमें मैं-मेरापन है, तबतक मनुष्यको मूर्तिपूजा जरूर करनी चाहिये । भगवत्प्राप्ति होनेके बाद भी मूर्तिपूजाको नहीं छोडनी चाहिये; क्योंकि जिस साधनसे लाभ हुआ है, उसके प्रति कृतज्ञ बने रहना चाहिये, उसका त्याग नहीं करना चाहिये ।

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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