।। श्रीहरिः ।।

संसारमें


रहनेकी विद्या-३


(गत् ब्लॉगसे आगे़का)
श्रोता—हम जिनकी सेवा करेंगे, वे ऋणी हो जायँगे ।

स्वामीजी—वे ऋणी नहीं होंगे । हम उनकी सेवा निष्कामभावसे करते हैं, बदलेमें उनसे कुछ लेनेकी इच्छा ही नहीं करते, तो वे ऋणी कैसे होंगे ? दूसरी बात, प्राप्त वस्तुको हम अपनी नहीं मानते, प्रत्युत उन्हींकी मानकर उनकी सेवामें लगाते हैं, तो वे ऋणी कैसे बनेंगे ? अतः सेवा करनेसे वे तो ऋणी बनेंगे नहीं और हम उऋण हो जायँगे, मुक्त हो जायँगे ।

कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह क्या करे ? दूसरोंसे जितना लिया है, वह सब दे दे और उसने जिसको दिया है वह अगर वापस दे दे तो ठीक है, नहीं तो छोड़ दे । ऐसा करनेसे दूकान उठ जायगी । अगर वह दिया हुआ पूरा-का-पूरा वापस लेना चाहेगा तो दूकान उठेगी नहीं; क्योंकि उसको लेनेके लिये कुछ नया माल देना पड़ेगा । इस तरह हमारा उससे लेना बाकी रहता ही रहेगा । अतः जबतक हम लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक दूकान नहीं उठ सकती । ऐसे ही जबतक हम संसारसे लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक हम उऋण नहीं हो सकते, मुक्त नहीं हो सकते । इसलिये लेनेका खाता ही उठा दें और सबको देना-ही-देना शुरू कर दें । माता-पिताको भी देना है, स्त्री-पुत्रको भी देना है, भाई-भौजाईको भी देना है, पतिको भी देना है, सासु-ससुरको भी देना है, देवर-जेठको भी देना है, देवरानी-जेठानीको भी देना है । सबको देना है, सबकी सेवा करनी है और लेना कुछ नहीं है । जहाँ लेनेकी इच्छा हुई कि फँसे ! एक ग्रामीण कहावत है—‘गरज गधाने बाप करे’ अर्थात् गरज गधेको बाप बनाती है । गरज करनेसे, लेनेकी इच्छा करनेसे आदमीको इतना नीचा उतरना पड़ता है; गधेकी भी गुलामी करनी पड़ती है ! अगर लेनेकी इच्छा ही नहीं हो, तो हम भगवान्‌के भी गुलाम नहीं होते ।
एक विचित्र बात है, ध्यान दें ! हम भगवान्‌के भक्त तो होते हैं, पर गुलाम नहीं होते । परन्तु कब ? जब हम भगवान्‌से कुछ भी लेना नहीं चाहते । जो भगवान्‌से कुछ भी लेना नहीं चाहते उन भक्तोंके लिये भगवान्‌ कहते हैं—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ गीतामें भगवान्‌ने कहा है कि अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)—इन चारों प्रकारके भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है । उस ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है । चारों प्रकारके भक्त बड़े उदार हैं; परन्तु ज्ञानी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है (७/१७-१८) । कारण यह है कि ज्ञानी भक्त भगवान्‌से कुछ नहीं चाहता । अर्थार्थी, आर्त, और जिज्ञासु तो भगवान्‌से कुछ-न्-कुछ चाहते हैं । वे चाहते हैं तो भगवान्‌के यहाँ कोई घाटा थोड़े ही है ! वे धन भी दे सकते हैं, दुःख भी दूर कर सकते हैं, तत्वज्ञान भी दे सकते हैं । उनमें देनेकी सामर्थ्य तो पूरी है; परन्तु उन चाहनेवाले भक्तोंका दर्जा कम हो गया !

भगवान् कहते हैं कि मैं तो देता रहूँगा, अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा मैं करूँगा—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९/२२); परन्तु तू चाहना मत कर—‘निर्योगक्षेम आत्मवान् भव’ (गीता २/४५) । कितनी बढ़िया बात कही ! न चाहनेसे प्रेम होता है; परन्तु चाहनेसे प्रेम नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है । वह इससे चाहता है और यह उससे चाहते हैं तो दोनों ही ठग हैं । दो ठगोंमें ठगाई नहीं होती । संसारसे चाहना मानो ठगाईमें जाना हैं । इसलिये चाहनाका त्याग करके सेवा करनी है । यही संसारमें रहनेका तरीका है ।

आप सब भाई-बहन अपने घरोंमें ऐसे रहो, जैसे कोई मुसाफिर रहता है । जैसे कोई सज्जन मुसाफिर आ जाता है और रात्रिभर रहता है, तो वह कहता है कि भाई ! तुम सब भोजन कर लो, जो बचे, वह मैं पा लूँगा । तुम सब अपनी-अपनी जगहमें रह जाओ, फालतू जगहमें मैं रह जाऊँगा । जो कपड़ा-लत्ता आपके कामका हो वह आप ले लो और फालतू हो, वह मुझे दे दो, उससे मैं निर्वाह कर लूँगा । परन्तु रात्रिमें आग लग जाय, चोर-डाकू आ जायँ, कोई आफत आ जाय, बीमारी आ जाय, तो सबसे आगे होकर सहायता करता है । उसका भाव यह रहता है कि मैंने इनका अन्न-जल लिया है, इनके यहाँ विश्राम किया है, इसलिये इनकी सेवा करना, सहायता करना मेरा काम है । अगर वह मुसाफिर काम तो पूरा करे, पर ले कुछ नहीं, तो वह बँधेगा नहीं । सुबह होते ही चल देगा । अगर वह लेनेकी इच्छा रखे, तो वह बँध जायगा । इसलिये सज्जनो ! सेवा करें । जो थोड़ा अन्न-जल लेना है, वह भी सेवा करनेके लिये ही लेना है; क्योंकि अन्न-जल नहीं लेंगे तो सेवा कैसे करेंगे ?

हमारे एक वृद्ध सन्त कहते थे कि संसारमें रबड़की गेंदकी तरह रहना चाहिये, मिट्टीकी लौंदकी तरह नहीं । गेंद फुदकती रहती है, कहीं भी चिपकती नहीं । परन्तु मिट्टीका लौंदा जहाँ जाय, वहीं चिपक जाता है । अगर मनुष्य संसारमें सेवा करनेके लिये ही रहे, अपने लिये नहीं रहे तो वह संसारमें चिपकेगा नहीं, मुक्त हो जायगा । यही संसारमें रहनेकी विद्या है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !


—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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