।। श्रीहरिः ।।
भगवान्‌से

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नित्ययोग-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक विशेष बात है, आपलोग ध्यान देकर सुनें । बात गहरी है, पर मैं बड़ी सरलतासे बताता हूँ । ‘मैं हूँ’—इसका अनुभव सबको है । मैं हूँ कि नहीं हूँ—इसमें कभी सन्देह होता है क्या ? इसमें क्या किसीकी गवाही लेनी पड़ती है ? किसीको पूछना पड़ता है कि बताओ मैं हूँ कि नहीं हूँ ? ‘मैं हूँ’—यह अनुभव स्वाभाविक तथा स्वतन्त्रतासे है । मैं कैसा हूँ, क्या हूँ—यह चाहे हम न जानें, पर ‘मैं हूँ’—इस अपने होनेपनमें कभी हमें संदेह नहीं होता । इससे सिद्ध हुआ कि मैं अनेक जन्मोंमें था, इस जन्ममें भी हूँ और आगे भी रहूँगा । अभी जागनेमें, सोनेमें, स्वप्नमें भी मैं निरन्तर हूँ । बचपनसे लेकर अभीतक बीचमें कभी मैं नहीं रहा, किसी समय मैं नहीं था—ऐसी बात हुई है क्या ? अपनी सत्ता नित्य-निरन्तर अनुभवमें आती है कि ‘मैं हूँ’ । यह एकदम सबके अनुभवकी बात है । इस नित्य-निरन्तर रहनेवाली हमारी सत्तामें कभी कमी नहीं आती । कमी आये बिना हमारे भीतर कामना कैसे हो सकती है ? हमारे भीतर कामना तभी होती है, जब हम उत्पत्ति-विनाशवाले शरीरको अपने साथ मान लेते हैं । जब शरीर, पदार्थ, परिवार आदिको अपने साथ मान लेते हैं; तब उनमें कमी आनेसे हमारे भीतर कामना होती है । अतः शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, वैभव आदिको अपने साथ न मानें; क्योंकि ये सब तो बदलनेवाले हैं और मैं निरन्तर रहनेवाला हूँ ! बालकपन, जवानी, बुढ़ापा, रोग-अवस्था, निरोग-अवस्था—ये सब अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों रहता हूँ ।

शरीर बदलनेके साथ आप अपना बदलना भी मान लेते है, पर वास्तवमें आप बदलते नहीं हैं । आपके बचपनका अभाव हो गया; तो आपका अभाव भी हो गया क्या ? जैसे ‘मैं हूँ’—इसका कभी अभाव नहीं होता, ऐसे ही भगवान्‌का कभी अभाव नहीं होता । वे सदासे हैं और सदा रहेंगे । सन्तोंके, शास्त्रोंके कहनेसे पता लगता है कि ‘सदा’ तो मिट जायगा, पर भगवान्‌ रहेंगे । कारण कि ‘सदा’ नाम कालका है और भगवान्‌ कालको भी खा जाते हैं—

ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
उलट कालको खात है, हरिया गुरगन होय ।।
नवग्रह चौंसठ जोगनी, बावन वीर पर्जन्त ।
काल भक्ष सबको करे, हरि शरणे डरपन्त ।।

तात्पर्य है कि काल भी नष्ट हो जाता है और परमात्मा रहते हैं ।

‘मैं हूँ’—इसमें ‘हूँ’-पना शरीरको लेकर है । यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे तो ‘है’-पना ही रहेगा ‘तू है’, ‘यह है’, ‘वह है’ और ‘मैं हूँ’—इन चारोंके सिवाय कुछ है ही नहीं । इनके सिवाय पाँचवाँ कोई हो तो बताओ ? इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ आया है, बाकी तीनोंके साथ ‘है’ आया है । ‘मैं’ लगानेसे ही ‘हूँ’ हुआ है—‘अस्मद्युत्तमः’ । यदि ‘मैं’ को साथमें नहीं लगायें तो ‘है’ ही रहेगा । इस ‘है’ में कभी कमी नहीं आती । कारण कि सत्‌में कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) वह नित्य-निरन्तर रहता है । उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वमें ही मैं हूँ—केवल इतनी बात आप मान लो । इसके सिवाय और आपको कुछ नहीं करना है ।

यह एक बड़ा भारी वहम है कि करनेसे ही परमात्मप्राप्ति होगी । अतः भजन करो, जप करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, समाधी लगाओ । इस प्रकार करनेपर ही बड़ा भारी जोर है । बातोंसे कुछ नहीं होगा, करनेसे होगा—यह धारणा रोम-रोममें बैठी हुई है । परन्तु मैं इससे विलक्षण बात कहता हूँ कि ‘है’ रूपसे जो सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उसीमें ही मैं हूँ । ‘मैं’ और वह ‘है’ एक ही है । जब ऐसा ठीक तरहसे जान लिया तो फिर क्या करना रहा ? क्या जानना रहा ? क्या पाना रहा ? मैं नित्य-निरन्तर परमात्मामें हूँ—यही असली शरण है । उस सर्वत्र परिपूर्ण ‘है’-(परमात्मतत्त्व-) से अलग कोई हो ही नहीं सकता । उस ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, ‘नहीं’ की प्राप्ति नहीं करनी है । ‘नहीं’ की प्राप्ति होगी तो अन्तमें ‘नहीं’ ही रहेगा । जो नहीं है वह प्राप्त होनेपर भी रहेगा कैसे ? इसलिये ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, और उस ‘है’ की प्राप्ति नित्य-निरन्तर है । हम उसमें हैं और वह हमारेमें है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे