।। श्रीहरिः ।।
गीता-पाठकी

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विधियाँ-१
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वाञ्छन्ति पठितुं गीतां
क्रमेण विक्रमेण वा ।
तदर्थं विधयः प्रोक्ताः
करन्यासादिना सह ॥

मनुष्यका यह स्वाभाव है कि वह जब अति रुचिपूर्वक कोई कार्य करता है, तब वह उस कार्यमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है । ऐसा स्वभाव होनेपर भी वह प्रकृति और उसके कार्य- (पदार्थ, भोगों-) के साथ अभिन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह इनसे सदासे ही भिन्न है । परन्तु परमात्माके नामका जप, परमात्माका चिन्तन, उसके सिद्धान्तोंका मनन आदिके साथ मनुष्य ज्यों-ज्यों अति रुचिपूर्वक सम्बन्ध जोड़ता है, त्यों-ही-त्यों वह इनके साथ अभिन्न हो जाता है, इनमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है; क्योंकि वह परमात्माके साथ सदासे ही स्वतः अभिन्न है । अतः मनुष्य भगवच्चिन्तन करे; भगवद्‌विषयक ग्रन्थोंका पठन-पाठन करे; गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थोंका पाठ, स्वाध्याय करे तो अति रुचिपूर्वक तत्परतासे करे, तल्लीन होकर करे, उत्साहपूर्वक करे । यहाँ गीताका पाठ करनेकी विधि बतायी जाती है । गीताका पाठ करनेके लिये कुशका, ऊनका अथवा टाटका आसान बिछाकर उसपर पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके बैठना चाहिये ।

गीता-पाठके आरम्भमें इन मन्त्रोंका उच्चारण करे—

ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्‌गीतामालामन्त्रस्य भगवान्‌ वेदव्यास ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्रीकृष्णः परमात्मा देवता ॥ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे इति बीजम् ॥ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः ॥ अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम् ॥

इन मन्त्रोंकी व्याख्या इस प्रकार है—

जैसे मालामें अनेक मणियाँ अथवा पुष्प पिरोये जाते हैं, ऐसे ही भगवान्‌के गाये हुए जितने श्लोक अर्थात् मन्त्र हैं, वे सभी श्रीमद्भगवद्‌गीतारूपी मालाकी मणियाँ हैं । इस श्रीमद्भगवद्‌गीतारूपी मालाके मन्त्रोंके द्रष्टा अर्थात् सबसे पहले इन मन्त्रोंका साक्षात्कार करनेवाले ऋषि भगवान्‌ वेदव्यास हैं—‘ॐ अस्य श्रीमद्भगवद्‌गीता मालामन्त्रस्य भगवान्‌ वेदव्यास ऋषिः ।’

श्रीमद्भगवद्‌गीतामें अनुष्टुप् छन्द ही ज्यादा हैं । इसका आरम्भ (धर्मक्षेत्रे.....) और अन्त (यत्र योगेश्वरः.....) तथा उपदेशका भी आरम्भ (अशोच्यानन्वशोचस्त्वं......) और अन्त (सर्वधर्मान्परित्यज्य......) अनुष्टुप छन्दमें ही हुआ है । अतः इसका छन्द अनुष्टुप् है—‘अनुष्टुप् छन्दः ।’


जो मनुष्यमात्रके परम प्रापणीय हैं, परम ध्येय हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण इसके देवता (अधिपति) हैं—‘श्रीकृष्णः परमात्मा देवता ।’


मात्र उपदेश अज्ञानियोंको ही दिये जाते हैं और अज्ञानी ही उपदेशका अधिकारी होते हैं । अर्जुन भी बातें तो धर्मकी कर रहे थे, पर अपने कुटुम्बके मोहके कारण शोक कर रहे थे । जब वे शोकके कारण अपने कर्तव्य-कर्मरूप धर्मका निर्णय नहीं कर पाते, तब वे भगवान्‌की शरण हो जाते हैं । भगवान्‌ अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये उपदेशका आरम्भ करते हैं, जो गीताका बीज है—‘ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे इति बीजम् ।’


भगवान्‌के शरण होना सम्पूर्ण साधनोंका, सम्पूर्ण उपदेशोंका सार है; क्योंकि भगवान्‌की शरण होनेके समान दूसरा कोई सुगम, श्रेष्ठ और शक्तिशाली साधन नहीं है । अतः सम्पूर्ण साधनोंका आश्रय छोडकर भगवान्‌के शरण हो जाना ही जीवकी सबसे बड़ी शक्ति, सामर्थ्य है—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः ।’


भगवान्‌ने यह बात प्रणपूर्वक, प्रतिज्ञापूर्वक कही है कि जो मेरे शरण हो जायगा, उसको मैं सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, उसका मैं उद्धार कर दूँगा । भगवान्‌की यह प्रतिज्ञा कभी इधर-उधर नहीं हो सकती क्योंकि; यह कीलक है—‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम् ।’


—इस प्रकार ‘ओम अस्य श्रीमद्भगवद्‌गीतामालामन्त्रस्य........ इति कीलकम्’ का उच्चारण करनेके बाद ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) करना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे