।। श्रीहरिः ।।

गीता-पाठकी

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विधियाँ-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
शास्त्रमें आता है कि देवता होकर अर्थात् शुद्ध, पवित्र होकर देवताका पूजन, ग्रन्थका पठन-पाठन करना चाहिये—‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । वह देवतापन, शुद्धता, पवित्रता, दिव्यता आती है अपने अंगोमें मन्त्रोंकी स्थापना करनेसे । जिस मन्त्रका, जिस स्तोत्रका पाठ करना हो उसकी अपने अंगोमें स्थापना करनी चाहिये; उसकी स्थापन करनेका नाम ही ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) है ।

करन्यास—
दोनों हाथोंकी दस अङ्गुलियों और दोनों हाथोंके सामने तथा पीछेके भागोंको क्रमशः मन्त्रोच्चारणपूर्वक परस्पर स्पर्श करनेका नाम ‘करन्यास’ है; जैसे—

(१) ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंके अङ्गुष्ठोंका परस्पर स्पर्श करे ।

(२) ‘न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुत इति तर्जनीभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी तर्जनी अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श कर ।

(३) ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी मध्यमा अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श करे ।

(४) ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इत्यनामिकाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी अनामिका अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श करे ।

(५) ‘पश्यमे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी कनिष्ठिका अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श कर ।

‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी हथेलियों और उनके पृष्ठभागोंका स्पर्श करे ।
हृदयादिन्यास—

दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे क्रमशः मन्त्रोच्चारणपूर्वक हृदय आदिका स्पर्श करनेका नाम ‘हृदयादिन्यास’ है; जैसे—

(१) ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इति हृदयाय नमः’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे ।

(२) ‘न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुत इति शिरसे स्वाहा’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे मस्तकका स्पर्श करे ।
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(३) ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति शिखायै वषट्’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे शिखा-(चोटी-) का स्पर्श करे ।
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(४) ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इति कवचाय हुम्’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे बायें कंधेका और बायें हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे दाहिने कंधेका स्पर्श करे ।
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(५) ‘पश्यमे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति नेत्रत्रयाय वौषट्’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंके अग्रभागसे दोनों नेत्रोंका तथा ललाटके मध्यभागका अर्थात् वहाँ गुप्तरूपसे स्थित रहनेवाले तृतीय नेत्र-(ज्ञाननेत्र-) का स्पर्श करे ।
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(६) ‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति अस्त्राय फट्’—ऐसा कहकर दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे उलटा अर्थात् बायीं तरफसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिनी तरफसे आगेकी ओर ले आये तथा तर्जनी और मध्यमा अङ्गुलियोंसे बायें हाथकी हथेलीपर ताली बजाये ।
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करन्यास और हृदयादिन्यास करनेके बाद बोले—‘श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः’ अर्थात् मैं यह जो गीताका पाठ करना चाहता हूँ, इसका उद्देश्य केवल भगवान्‌की प्रसन्नता ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे