।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–

फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०६९, रविवार

महाशिवरात्री

पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं


(गत ब्लॉगसे आगेका)

           जैसे, हमें सौ रुपयोंमें धड़ी मिलती हैं, तो क्या दूकानदारके सौ रुपये लगे हैं ? अगर उसके सौ रुपये लगे हैं, तो फिर वह बेचे ही क्यों ? अतः जो चीज पैसोंसे मिलती है, वह पैसोंसे कम कीमती होती है । पैसोंके बदले जो कोई मिलेगा, वह पैसोंका गुलाम ही होगा । सत्संग पैसोंसे नहीं होता । यह तो भगवान्‌की कृपासे ही होता है‒‘बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता’ (मानस ५/७/२) । कृपा करते समय भगवान्‌ यह नहीं देखते कि इसने कितना पुण्य किया है ? इसमें कितनी योग्यता है ? इसका कितना अधिकार है ?

सतगुरु पूठा इंद्रसम, कमी न राखी कोय ।

वैसा ही फल निपजै, जैसी भूमि होय ॥

             वर्षा तो बरस जाती है, पर आगे भूमिमें जैसा बीज होगा वैसा ही फल होगा । मारवाड़के लोग समझते हैं, एक मतीरा होता है और एक बिस्लुम्बा (तसुम्बा) होता है । दोनोंकी बेल बराबर ही दीखती है और फल भी आरम्भमें समान दीखता है । परन्तु मतीरा तो मीठा होता है और बिस्लुम्बा बड़ा कड़ुआ होता है । वर्षा भी एक, जमीन भी एक, धुप भी एक, खाद भी एक, फिर यह फर्क क्यों हैं ? फर्क बिजमें हैं; जैसा बीज होगा, उसीके अनुसार फल होगा । वह बीज बदला नहीं जा सकता । ऐसे ही चौरासी लाख योनियाँ बदली नहीं जा सकतीं , पर मनुष्य बदल सकता है । मनुष्य अपनेको बहुत बड़ा सन्त-महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बना सकता है‒इतनी योग्यता भगवान्‌ने दी है । परन्तु मनुष्यने वह योग्यता पैसोंमें लगा दी है ! तेलीके घर तेल होता है, वह पैर धोनेके लिये थोड़े ही होता है ? लाखों रुपयोंकी एक मणि लाकर दी, तो बोरीमेंसे एक धागा निकाल लिया और मणिको उसमें पिरोकर पैरोंमें बाँध लिया । बाँधनेवालेकी बुद्धि तो देखो ! राजाके मुकुटपर लगनेवाली मणि क्या पैरोंमें बाँधनेके लिये है ? ऐसे ही मनुष्य-जीवन-जैसी बढ़िया चीजको तुच्छ भोगोंमें और रुपयोंके संग्रहमें लगा दिया ! मनुष्यजन्म खराब क्यों किया भाई ? तुम्हारी जगह कोई दूसरा जीव आता तो अपना कल्याण करता बेचारा । परन्तु तुमने आकार यह सीट रोक ली । गीता कहती है कि ऐसा आदमी निरर्थक ही जीता है‒‘मोघं पार्थ स जीवति’ (३/१६) । अर्थात्‌ वह मर जाय तो अच्छा है ! कारण कि मनुष्य-शरीर पाकर कल्याण नहीं करता, रात-दिन पशुओंकी तरह भोग भोगनेमें लगा हुआ है । पशुओंके भी बाल-बच्चे होते हैं तो वे राजी होते हैं । एक सूअरीके पाँच-सात, दस-ग्यारह बच्चे होते हैं तो वे राजी होते हैं । इतने बच्चे उसके साथ घूमते हैं, तो वह राजी होती है । ऐसे ही आप भी बाल-बच्चोंमें राजी होते हैं । यह मनुष्य-जीवन इसीलिये मिला है क्या ? बच्चोंका पालन-पोषण करो, उनको शिक्षा दो, पर उनमें मोह मत करो । अगर वे आपका कहना नहीं मानते तो उनका भाग्य फूट गया, पर आपका तो काम बन गया ! एक कुम्हार था । एक दिन वह अपने घर गया और उसने अपनी स्त्रीसे पूछा कि रसोई बनायी या नहीं ? स्त्रीने कहा कि रसोई तो नहीं बनी । घरमें अन्नका दाना भी नहीं है, किसकी रसोई बनायें ? वह कुम्हार एक हाँड़ी लेकर बाजार गया और एक दूकानदारसे कहा कि यह हाँड़ी ले लो और बदलेमें थोड़ा बाजरा दे दो । दूकानदारने हाँड़ी लेकर बदलेमें थोड़ा बाजरा दे दिया । कुम्हार बाजरा लेकर घरपर आया । फिर उन्होंने रसोई बनाकर भोजन कर लिया । दूसरे दिन वह दूकानदार कुम्हारसे मिला तो उसने कहा‒अरे ! यह कैसी हाँड़ी दी तुमने ? हाँड़ी तो फूटी हुई थी, चूल्हेपर रखी तो आग बुझ गयी । तुम्हारी हाँड़ी तो चढ़ी ही नहीं ! तब वह कुम्हार बोला लि तुम्हारी हाँड़ी तो नहीं चढ़ी, पर हमारी हाँड़ी तो चढ़ गयी (हमारी रसोई तो बन गयी) । ऐसे ही जो अपना काम कर ले उसकी हाँड़ी तो चढ़ ही गयी । आप बालकोंका ठीक तरहसे पालन-पोषण करें, उनको अच्छी शिक्षा दें तो आपकी हाँड़ी चढ़ गयी ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे