।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०६९, गुरुवार
सांसारिक सुख दुःखोंके कारण हैं
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सांसारिक पदार्थोंके पासमें होनेसे जिसे अभिमान होता है, वह हिंसा करता है । ऐसे ही जिसे गुणोंका अभिमान है, वह भी हिंसा करता है । गुण तो आने-जानेवाले हैं, उनको लेकर अभिमान करता, तो जिनके पास वे गुण नहीं हैं, उनके मनमें जलन पैदा होती है; क्योंकि वे किसीसे कम तो हैं नहीं । सब-के-सब परमात्माके अंश हैं; अतः स्वरूपसे समान हैं । आने-जानेवाले पदार्थोंसे अपनेको सुखी मानना भूल है । जो अपनेको बड़ा और दूसरेको नीचा समझकर दूसरोंका तिरस्कार करता है, वह भी हिंसा करता है । अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषताका अनुभव करना भी भोग है, और उससे दूसरोंकी हिंसा होती है । मान-बड़ाईका सुख भोगनेवाला भी हिंसा करता है; क्योंकि वह अपनेको मान-बड़ाईके योग्य समझकर अभिमान करता है । वह सोचता है कि कहीं दूसरेकी बड़ाई हो जायगी तो मेरी बड़ाईमें धब्बा लगेगा । ऐसे ही काम-धन्धा न करनेवाला मनुष्य आलस्यका सुख लेता है तो दूसरे कहते हैं कि हम तो मेहनत करते हैं और यह आरामसे बैठा माल खाता है तो यह भी हिंसा है । तो सांसारिक सुखोंको भोगनेवाला व्यक्ति खुद तो दुःख पाता ही है, दूसरोंको भी दुःखी करता है ।
सभी भोग दुःखोंके कारण है । सांसारिक सुख पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे । स्वयं अविनाशी होते हुए भी ऐसे नाशवान् सुखोंके वशमें होना अपनी हत्या करना ही है । सुखका भोगी व्यक्ति कभी पापों और दुःखोंसे बच ही नहीं सकता । इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, उसके लिये आवश्यक है कि वह किसी वस्तु, परिस्थिति, व्यक्ति आदिके कारण प्रसन्नता या सुखका अनुभव न करे । इनसे प्रसन्न होनेवाला व्यक्ति मुक्त नहीं होता । कर्मयोगमें यही खास बात है । कर्मयोगी सभी कर्तव्य-कर्म करता है, पर संयोगजन्य सुखका भोग नहीं करता । किसी बातसे वह प्रसन्नता नहीं खरीदता ।
त्यागसे सुख होता है । जो पुरुष विरक्त, त्यागी होता है, उसे देखकर दूसरोंको सुख होता है । अतः जो संयोगजन्य सुखोंका भोगी नहीं है, ऐसे त्यागी पुरुष दूसरोंको सुख पहुँचाता है और संसारका बड़ा भारी उपकार करता है । त्यागी महापुरुष संसारका जितना उपकार करता है, उतना उपकार कोई कर सकता ही नहीं । उसे देखनेसे, उसकी बातें सुननेसे भी दूसरोंको सुख मिलता है । ऐसा महापुरुष यदि एकान्तमें बैठा हो, तो भी संसारके दुःखोंका नाश करता है । उसका भाव संसारको सुख पहुँचानेवाला होता है‒
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
अपने प्रति वैर रखनेवालोंको भी वह सुख पहुँचाता है । जिसके हृदयमें अभिमान और स्वार्थ नहीं है, जिसका भाव दूसरोंको सुख पहुँचानेका है, उसकी भगवान्‌की उस शक्तिके साथ एकता हो जाती है, जो संसारमात्रका पालन कर रही है । इसलिये भगवान्‌का किया हुआ उपकार उसीका है । और उसका किया हुआ उपकार भगवान्‌का है । इसलिये जो सुखकी इच्छा और सुखका भोग करता है, वह अपना और संसारका नुकसान करता है । और जो सांसारिक सुखोंका त्यागी तथा भगवान्‌का अनुरागी है, वह संसारमात्रका उपकार करता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे

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