।। श्रीहरिः ।।

<!--[if gte mso 9]> Admin Normal Admin 3 69 2013-03-15T05:26:00Z 2013-03-15T05:37:00Z 2 460 2625 21 6 3079 12.00 <![endif]

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०६९, शुक्रवार
भोगासक्ति कैसे छूटें ?



श्रोता‒जब भोग पदार्थ सामने आते हैं, तब न जाने क्यों हम विचलित हो जाते हैं; अतः उस समयमें हम क्या करें ?
स्वामीजी‒जिसने लाठी चलाना पहले ही सीख लिया है, वह शत्रुके सामने आनेपर उससे मुकाबला कर सकता है । परन्तु शत्रु पहले ही सामने आ जाय और लाठी चलाना सीखा नहीं, वहाँ तो लाठी खानी ही पड़ेगी ! सत्संगकी बातोंको तो आप जानते हैं, पर जब भोग सामने आते हैं, तब उन बातोंको भूल जाते हैं, वे बातें काम नहीं आतीं ।
तब लगि सब ही मित्र है, जब लगि पर्‌यो न काम ।
हेम अगन शुद्ध होत है,           पीतल होवे स्याम ॥
जबतक काम नहीं पड़ता, तबतक सब ही मित्र हैं । काम पड़नेसे ही पता चलता है कि कौन मित्र है और कौन मित्र नहीं है । सोना भी पीला दीखता है और पीतल भी पीला दीखता है, परन्तु आगमें रखनेपर सोना तो चमकता है और पीतल काला हो जाता है ।
एक सीखी हुई बात होती है और एक जानी हुई बात होती है । जानी हुई बात वास्तविक होती है, जो कभी इधर-उधर नहीं होती । सीखी हुई बात बुद्धितक ही रहती है, स्वयंतक नहीं पहुँचती । परन्तु जानी हुई बात स्वयंतक पहुँचती है । जबतक कोई बात स्वयंतक नहीं पहुँचती, तबतक वह व्यवहारमें जैसी आनी चाहिये, वैसी नहीं आती । जिसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति है, उसको सीखी हुई बातोंमें सन्तोष नहीं होता । सन्तोष न होनेसे उसके द्वारा खोज होती है कि वास्तवमें क्या बात है ? खोज करते-करते उसको तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।
एक सत्संग होता है और एक कथा-वार्ता, पुस्तकोंका विवेचन आदि होता है । कथा, व्याख्या आदिकी बातें तो बहुत जगह मिलती हैं, पर अनुभवी, भगवत्प्राप्त महापुरुषोंका सत्संग कम जगह मिलता है । अनुभवी महापुरुष पहले (सत्य, त्रेता, द्वापरमें) भी कम थे, आज तो और भी कम हैं ! आज तो विद्यार्थी भी ठीक तरहसे शास्त्रका अध्ययन नहीं करते । कोरी परीक्षा देकर पास हो जाते हैं । पूछो तो बता नहीं सकते । जो पढ़ा है, वह भी नहीं बता सकते फिर वास्तविक ज्ञान तो बहुत दूर रहा ! हमारी प्रार्थना है कि आप वास्तविक तत्त्वको समझें , कोरी पढ़ाई न करें ।
जब भोग सामने आते हैं, तब सुनी-सुनायी बातें रद्दी हो जाती हैं । एक कहानी है । एक पण्डित थे । वे रोज रात्रिमें कथा किया करते थे । उन्होंने एक बिल्लीको पालकर सिखा रखा था । वे बिल्लीको बैठाकर उसके सिर थोड़ी मिट्टी रखकर दीपक रख देते और उस दीपकके प्रकाशमें कथा बाँचते । कोई कहता कि हमारा मन ठीक नहीं है तो वे कहते‒ ‘अरे ! यह बिल्ली ही ठीक है, एकदम चुपचाप बैठी रहती है, तुम्हारी क्या बात है ?’ एक आदमीने विचार किया कि देखें, बिल्ली कैसे चुपचाप बैठती है । वह दूसरे दिन अपने साथ एक चूहा ले गया । जब पण्डितजीकी कथा चल रही थी, उस समय उसने चूहेको बिल्लीके सामने छोड़ दिया । चूहेपर दृष्टि पड़ते ही बिल्ली उसपर झपट पड़ी और दीपक गिर गया ! यही दशा आदमियोंकी होती है । बातें सुनते समय तो चुपचाप बैठे रहते हैं, पर जब भोग-पदार्थ सामने आ जायँ तो फिर वशकी बात नहीं रहती । कारण कि भीतरमें रुपयों आदिका आकर्षण है, इसलिये रुपये सामने आनेपर मुश्किल हो जाती है । भोगोंका यह आकर्षण पहले नहीं था‒यह बात नहीं है । आकर्षण तो पहलेसे ही था, पर वह दबा हुआ था । ताँबेके कड़ेके ऊपर सोनेकी पालिश कर दी जाय तो वह कड़ा सोनेकी तरह दीखता है । इसी तरह सीखी हुई बातें पालिशकी तरह होती हैं । परन्तु जानी हुई, अनुभव की हुई बात ठोस होती है । जिसके भीतरमें स्वयंका अनुभव होता है, उसके सामने चाहे कुछ भी आ जाय, वह विचलित नहीं होता । वह हर परिस्थितिमें ज्यों-का-त्यों रहता है ।
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे