।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०६९, शनिवार
भोगासक्ति कैसे छूटें ?
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्माकी प्राप्तिको लोग कठिन मानते हैं; परन्तु वास्तवमें परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत भोगासक्तिका त्याग कठिन है । भगवान्‌ने कहा है‒
भोगेश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(गीता २/४४)
जिनकी भोग और संग्रहमें आसक्ति है, वे परमात्माको प्राप्त करनेका निश्चय भी नहीं कर सकते, परमात्माको प्राप्त करना तो दूर रहा ! हमें परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है, अपना कल्याण ही करना है‒यह बात उनमें दृढ़ नहीं रहती । अतः जबतक भीतरमें भोगोंका आकर्षण, महत्त्व बना हुआ है, तबतक बातें भले ही सीख जायँ, पर परमात्मप्राप्तिका निश्चय नहीं कर सकते । जब निश्चय ही पक्का नहीं रहेगा, तो फिर परमात्मप्राप्ति होगी ही कैसे ?
अगर आप जड़, असत्, क्षणभंगुर पदार्थोंसे ऊँचे उठ जाओ तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है । जो स्वतःसिद्ध है, उसको प्राप्त करनेमें क्या कठिनता है ? कठिनता यही है कि जो नहीं है, उसमें आकर्षण हो गया । ‘है’ की प्राप्ति कठिन नहीं है, ‘नहीं’ का त्याग करना कठिन है । जब ‘नहीं’ का भी त्याग नहीं कर सकते, तो फिर और क्या त्याग करोगे ? आश्चर्यकी बात है कि आप जाने हुए असत्‌का त्याग नहीं कर सकते ! जिनको जानते हो कि ये असत् हैं, नाशवान् हैं, सदा साथ रहनेवाले नहीं हैं, आने-जानेवाले हैं, उनका भी त्याग नहीं करते‒यह बहुत बड़ी गलती है ।
असत्‌का आकर्षण कैसे छूटे ? इसके लिये कर्मयोगका पालन करें । गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोगकी बात विशेषतासे कही है और उसकी महिमा गायी है‒‘कर्मयोगो विशिष्यते’ (५/२) । कर्मयोगकी बात गीतामें जितनी स्पष्ट मिलती है, उतनी अन्य ग्रन्थोंमें नहीं मिलती । कर्मयोगका तात्पर्य है‒दूसरोंको सुख देना और बदलेमें कुछ भी न चाहना । माँ-बापको सुख देना है । स्त्री, पुत्र, भाई-भतीजेको भी सुख देना है । पड़ोसियोंको भी सुख देना है । सबको सुख देना है । इसको काममें लाओ तो असत्‌का आकर्षण छूट जायगा ।
किसी तरहसे दूसरोंको सुख मिल जाय, आराम मिल जाय‒ऐसा जो भाव है, यह बहुत दामी चीज है, मामूली नहीं है । अगर आप चाहते हो कि विषय सामने आनेपर हम विचलित न हों, तो इस सिद्धान्तको पकड़ लो कि दूसरोंको सुख कैसे हो ? दूसरोंको आराम कैसे हो ? वस्तु मेरे पास हरदम नहीं रहेगी, अतः दूसरेके काम आ जाय तो अच्छा है‒ऐसा भाव होनेसे सबके हितमें रति हो जायगी । जब दूसरोंके हितमें आपकी रति, प्रीति हो जायगी, तब भोगपदार्थ सामने आनेपर भी उनका त्याग करना सुगम हो जायगा । परन्तु ‘मेरेको सुख कैसे हो ? मेरेको सम्मान कैसे मिले ? मेरी बड़ाई कैसे हो ? मेरी बात कैसे रहे ? मेरेको आराम कैसे मिले ?’‒यह भाव रहेगा तो त्रिकालमें भी कल्याण नहीं होगा, क्योंकि ऐसा भाव रखना पशुता है, मनुष्यता नहीं है ।
दूसरेके हितका भाव होनेसे आपकी सुख भोगनेकी इच्छाका नाश हो जायगा ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे