।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०६९, सोमवार
अनित्य सुखकी रुचि मिटानेकी आवश्यकता

श्रोता‒अखण्ड साधन कैसे हो ?

स्वामीजी‒अखण्ड साधन होगा सांसारिक सुखकी आसक्ति छोड़नेसे । सांसारिक वस्तुओंके संग्रहकी और उनसे सुख लेनेकी रुचिका अगर आप नाश कर दें तो निहाल हो ही जाओगे, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । मैं रुपयोंका त्याग करनेकी बात नहीं कहता हूँ, साधु बननेकी बात नहीं कहता हूँ । मैं आपसे हाथ जोड़कर विशेषतासे प्रार्थना करता हूँ कि संग्रहकी और भोगकी जो रुचि है, उस रुचिका आप किसी तरहसे नाश कर दें । अगर उस रुचिका नाश हो जाय तो बहुत बड़ा लाभ होगा । रुचिसे आपका और दुनियाका पतन होगा, इसके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा । संग्रह और भोगकी रुचि बड़ा भारी पतन करनेवाली चीज है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । नाशवान्‌की तरफ रुचि महान्‌ अनर्थका हेतु है । विष खा लेनेसे इतनी हानि नहीं है, जितनी हानि इससे है‒‘हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु’ । अष्टावक्रगीतामें लिखा है‒
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
(१/२)
‘यदि मुक्तिकी इच्छा रखते हो तो विषयोंका विषके समान त्याग कर दो ।’

एक ही बात है कि संसारकी रुचि नष्ट होनी चाहिये । उस रुचिकी जगह भगवान्‌की रुचि हो जाय, तत्त्वज्ञानकी रुचि हो जाय, मुक्तिकी रुचि हो जाय, भगवत्प्रेमकी रुचि हो जाय, भगवद्दर्शनकी रुचि हो जाय तो निहाल हो जाओगे, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । जीनेकी रुचिसे आप जी नहीं सकते । जीनेकी रुचि रखते हुए भी मरना पड़ेगा । अगर जीनेकी रुचिका त्याग कर दो तो कोई हानि नहीं होगी, प्रत्युत बड़ा भारी लाभ होगा । रुचिको कम कर दिया जाय तो भी बहुत लाभ होता है । रुचिके वशमें न हों तो भी बड़ा भारी लाभ होता है‒‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (गीता ३/३४) । अगर इसको नष्ट कर दो, तब तो कहना ही क्या है !

श्रोता‒रुचि नष्ट नहीं होती है महाराज !
स्वामीजी‒रुचि नष्ट नहीं होती है‒यह आपके वर्तमानकी दशा है । रुचि नष्ट न होती हो‒ऐसी बात है ही नहीं । यह रहनेकी चीज नहीं है । बालकपनमें खिलौनेमें जो रुचि थी, वह आज है क्या ? कंकड-पत्थरोंमें, काँचके लाल-पीले टुकड़ोंमें जो रुचि थी, वह रुचि आज है क्या ? रुचि मिटती नहीं‒यह बात नहीं है, रुचि तो टिकती ही नहीं, ठहरती ही नहीं । आप नयी-नयी रुचि पैदा कर लेते हो और कहते हो कि मिटती नहीं ! रुचि टिक सकती नहीं । नाशवान्‌की रुचि नाशवान् ही होती है । परमात्माकी रुचि हो तो वह मिटेगी नहीं, प्रत्युत परिणाममें परमात्माकी प्राप्ति करा देगी । गीता कहती है‒
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।
                                              (६/४४)

ऐसी जिज्ञासा न हो तो कोई बात नहीं । संसारकी रुचि हट जाय तो योगकी जिज्ञासा भी हो जायगी । रुचि हटती नहीं‒यह बिलकुल गलत बात है । रुचि मिटती नहीं‒यह तो आपकी दशा है, जिसको लेकर आप बोल रहे हो ।

भोग और संग्रहकी रुचि महान्‌ अनर्थकारक है । सन्तोंके संगको मुक्तिका दरवाजा और भोगोंकी रुचिवाले पुरुषोंके संगको नरकोंका दरवाजा बताया गया है‒ ‘महत्सेवां द्वारमाहुर्विक्तेस्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम्’ (श्रीमद्भागवत ५/५/२) । भोगोंका संग इतना नुकसानदायक नहीं है, जितना भोगोंकी रुचिवालोंका संग नुकसानदायक है । कोढ़ीके संगसे कोढ़ हो जाय, इस तरहकी बात है । अतः भोगोंकी रुचि रखनेमें आपका और दुनियाका बड़ा भारी नुकसान है और इसका त्याग करनेमें बड़ा भारी हित है । इसलिये कृपा करके दुनियाका हित करो । हित न कर सको तो कम-से-कम अहित तो मत करो ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे

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