।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–

फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०६९, शनिवार

विजया-एकादशीव्रत (वैष्णव)


पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं

(गत ब्लॉगसे आगेका)

                 शरणानन्दजी महाराज सूरदास थे । वे एक जगह गये, जहाँ कोई परिचित आदमी नहीं था । वहाँसे उनको आगे स्टेशनतक जाना था, जिसका चार आना टिकट लगता था । वे एक आदमीसे बोले कि भाई ! टिकट लाकर दो । वह बोला‒बाबा, माफ करो ! महाराजजी बोले‒माफ कैसे करें तुमको ? माफ नहीं कर सकते । माफ तो तब करें जब मैं पात्र न होऊँ और तुम्हारे पास पैसा न हो । मैं पात्र हूँ और तुम्हारे पास पैसा है, फिर माफ कैसे कर दें ? उस आदमीको टिकट लाकर देना पड़ा । अपराधीको माफ नहीं किया जाता । अपराध क्या है ? जैसे तुम पैसा रखते हो वैसे मैं भी पैसा रख सकता था । पर मैंने पैसे रखे नहीं, तो वे पैसे कहाँ गये ? तुम्हारे पास ही रहे । तुम खजानची हो । जब हमें जरूरत हो, तब दिया करो । जिसको मिलता है, उसको अपने भाग्यका मिलता है । क्या आप अपने भाग्यका देते हो ? क्या आप रोटी नहीं खाते ? कपड़ा नहीं पहनते ? मकानमें नहीं रहते ? आप तो पूरा खाते हो, पहनते हो; परन्तु जो जमा करते हो, उसपर हमारा हक है । साहूकारीसे दे दो तो अच्छी बात है नहीं, तो दण्ड होगा । माफी कैसे होगी ?

           जो रात-दिन रुपयोंके लोभमें लगे हैं, वे इन बातोंको समझ ही नहीं सकते । जिस बाजारमें वे गये ही नहीं, उस बाजारके भावोंको वे कैसे समझेंगे ? वे जिस बाजारमें रहते हैं, उसी बजारके भावोंको वे समझ सकते हैं । वे रुपयोंके बाजारमें ही रहते हैं । त्यागका भी एक विलक्षण, अलौकिक बाजार है, पर उसकी बात वही समझ सकता है, जो उसी बाजारका हो ।

          एक अच्छे महात्मा थे । उनसे मैंने अलग-अलग समयपर दो प्रश्न किये । एक समय तो उनसे यह प्रश्न किया कि आप इतने ऊँचे दर्जेकी बातें हमें सुनते हो, पर क्या आप यह जानते हो कि हमलोग उस बातोंको ठीक समझते हैं ? अगर हमलोग उन बातोंको न समझते हों, तो उन बातोंका मूल्य क्या हुआ ? उन्होंने उत्तर दिया कि मेरी बातें आकाशमें रहेंगी; जब कोई समझदार होगा, पात्र होगा, उसके सामने वे प्रकट हो जायँगी । दूसरी बार मैंने कहा कि भगवान्‌के घरमें पोल है, न्याय नहीं है । उन्होंने पूछा‒कैसे ? तो मैंने कहा कि आप जैसे महात्माओंको हमारे सामने ले आये । हमलोग कोई पात्र थे क्या ? भूखेको अन्न देना चाहिये, प्यासेको जल देना चाहिये, ऐसे ही जो योग्य हों, उनको ऊँचे दर्जेकी बातें सुनानी चाहिये । आप जैसे तो सुनानेवाले मिले और हमे-जैसे पात्र मिले, इससे मालूम होता है कि भगवान्‌के घर बड़ी पोल है‒

अंधाधुंध सरकार है, तुलसी भजो निसंक ।


खीजे  दीनो  परमपद,   रीझै  दीनी  लंक ॥

एक बार मैंने कहा तो वे महात्मा बोले‒बेटी कौन-सी कुँआरी रहती है ? अच्छा वर मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो कैसा भी वर मिले, विवाह तो करना ही पड़ता है । इस तरह पात्र न होनेपर भी भगवान्‌की ऊँचे दर्जेकी बातें मिल जाती हैं ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे