।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
चैत्र नवरात्रारम्भ, ‘पराभव’ संवत्सर
कर्म, सेवा और पूजा


       परतन्त्रता दीखती है तो अभिमानके कारण दीखती है । अभिमान नहीं रखना है । अपनेको कोई कहे, वैसा करनेमें बहुत आनन्द है । कहे जैसा करनेमें अपनेपर कुछ जिम्मेवारी नहीं रहती, किंचिन्मात्र भी अपनेपर आफत नहीं रहती । कहे ज्यों कर दें, बोलो ! इसमें तनिक भी परतन्त्रता मालूम देती है ? परतन्त्रता है ही नहीं इसमें । अभिमानके कारण परतन्त्रता प्रतीत होती है । बड़ी स्वतन्त्रता, बड़ी आजादी है इसमें । कह दिया, वैसा कर दिया, बस । अपनेपर कोई जिम्मेवारी नहीं, किंचिन्मात्र जिम्मेवारी नहीं; न पहले, न उस समय, न पीछे । ‘तूने ऐसा कैसे कर दिया ?’ कि ‘कह दिया, इसलिये कर दिया ।’ अभिमानके कारण यह बात समझमें नहीं आती । मौज बहुत है इसमें बोलो ! इसमें शंका करो । अरे भाई ! सीधी-सी बात बात है । कौन-सी गूढ़ पंक्ति है ?

       करना पड़ता है अभिमानीको । अभिमान आया है न भीतर, वह चुभता है, वह करने नहीं देता, बुरा लगता है । साईकिलको घुमा लें, गोल-गोल तो घूम जावे, सीधी चलावे, खड़ी कर दो तो खड़ी हो जाय, उतर जाओ तो उतर जाओ, चढ़ जाओ तो चढ़ जाओ । आगे चलाकर पीछे चलाई फिर आगे चलाई और फिर पीछे चलाई । साईकिल कहती है कि बार-बार ऐसा क्यों चलाते हो ? कहती है क्या ? मर्जी है मालिककी चलो, मत चलाओ, गोल चलाओ, खड़ी कर दो । जँचे जैसे चलाओ, हमें क्या मतलब है ? देखो, भारी तब लगता है, जब आज्ञा देनेवाला है उसमें आदर-बुद्धि नहीं है, पूज्य-बुद्धि नहीं है और पूज्य-बुद्धि होती तो वह कुछ कह दे तो इतनी खुशी होती है कि कह नहीं सकते । कभी कहते नहीं, मेरेको कह दिया, कितने आनन्दकी बात है ! आप-से आप यदि करते तो इतने फायदेकी नहीं होती । उन्होंने आज्ञा दे दी । मेरो कह दिया ओ हो ! मैं तो बड़भागी हूँ, ऐसे बहुत आनन्द आता है; परन्तु आज्ञा देनेवालेमें पूज्यबुद्धि, आदरभाव होना चाहिये ।

       तीन तरहका काम है‒एक काम करना है, एक सेवा करना है, एक पूजा करना है । काम तो नौकर भी कर देगा । जिसमें सेवकपनका भाव रहता है, वो सेवा करता है जबकि काम वह-का-वह ही है । उस समय वह सेवा हो जाती है और वह ही जब जिसकी आज्ञा पालन करता है, उसपर बहुत पूज्य भाव रखता है, जैसे भगवद्‌बुद्धि है, भगवान्‌ है साक्षात्, वे कहे कि तू ऐसा कर दे तो कितना आनन्द आवे इसमें ! ‒वह पूजा होती है । वह ही काम पूजा हो जायगा । पिताकी सेवा करनेमें भीतरमें पूज्य भाव रहे कि मेरा अहोभाग्य है । जीवन सफल हो गया, समय सफल हो गया, वस्तु सफल हो गयी कि इनकी सेवामें लग गयी । तब वह पूजा हो जाती है । आदर ज्यादा होनेसे पूजा, कम आदर होनेसे सेवा और स्वार्थके लिये, तनख्वाहके लिये काम करता हो तो वह है काम‒ये तीन भेद हो जाते हैं भावके कारणसे । जितना ही भाव त्यागका होता है, उतना ही श्रेष्ठ होता है । अपने द्वारा कामनाका त्याग और उसमें पूज्य बुद्धि‒ये दो चीजें है खास ।

    हमें तो गीतामें सातवें औ नवें अध्यायमें दो बातें ही खास दीखती है । सातवेंमें तो ‘कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः’ कामनाके कारण और नवमें ‘न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते’ (गीता ९/२४) मेरेको जानते नहीं, इस वास्ते पतन होता है । तो भगवद्‌बुद्धि हो और इधर स्वार्थका त्याग हो तो उसकी मुक्ति हो गयी, बन्धन रहा ही नहीं । बन्धन दो ही हैं‒एक है पदार्थ और एक है क्रिया । एक तो काम करना और एक धन चाहना । इन दोमें जिनकी आसक्ति होती है, जिनकी प्रियता होती है, वह पारमार्थिक रुचि नहीं कर सकता ।
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
(दि ११-४-१९८३, भीनासर धोरा, बीकानेरमें दिये गये प्रवचनसे)