।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, रविवार
कर्म, सेवा और पूजा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
बाह्य-पदार्थोंका सुख तो पराधीनताका है । पराधीनता तो पराधीनता ही है‒‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ । और भीतरमें सन्तोष आवे जब‒
गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान ।
जब आवे संतोष धन  सब  धन धूरी सामान ॥

भीतरसे सन्तोष आवे । ‘सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्त चेतसाम्’ बहुत आनन्द हो रहा है । कुछ चाहिये नहीं । हमारे कुछ नहीं चाहिये । जीयेंगे कैसे ? जीना भी क्यों चाहिये ? भगवान्‌को जिलानेकी लाख गरज हो तो दे दो, तो जी जावेंगे । नहीं दे तो चलने दो, हमें जीनेसे मतलब नहीं, शरीरसे मतलब नहीं, प्राणोंसे मतलब नहीं, जीनेसे मतलब नहीं । भगवान्‌, सन्त, महात्मा, संसार‒सब उसकी गरज करें, उसको किसीकी गरज नहीं । भगवान्‌की भी नहीं । भगवान्‌को गरज होती है ऐसे पुरुषोंकी । ‘मैं हूँ भगतन को दास भगत मेरे मुकुटमणि’ भक्त-भक्तिमान् है भगवान्‌, भगतके भगत हैं भगवान्‌ । भगवान्‌को आनन्द बहुत आता है इसमें । और माँको आनन्द आता है न बच्चेका पालन करनेमें, नहीं तो आप हम इतने बड़े हो जावें क्या ? वह प्रसन्नतासे पालती है । आनन्द आता है माँको, बच्चे टट्टी-पेशाब फिर देते है माँपर ।

एक सज्जन कह रहे थे । काशीके मदन मोहनजी महाराज थे । ब्याहमें गये थे कहीं । तो ब्याहमें बढ़िया-बढ़िया साड़ियाँ पहनकर बहनें आयीं । एक बहनके गोदमें बालक था, दूसरी बहन पासमें बैठी थी । तो गोदीमें जो बालक था, वहीं टट्टी फिरने लगा । टट्टीकी आवाज आयी तो पासवाली बहनने कहा, ‘देख यह टट्टी जाता है ।’ तो वह कहती है ‘हल्ला मत कर, इसके हाथ लगा देंगे, इसको पता लग जायगा तो टट्टी रुक जायगी इसकी, चुप रह ।’

इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या इसकी ? उसने कहा‒‘चुप रह’ । रेशमी साड़ीमें टट्टी फिर रहा है और कहती है कि ‘बोल मत, टट्टी रुक जायगी बालककी’ । बोलो ! इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या ? वो रोगी न हो जाय, यह चिन्ता है ।

माँ यशोदा धमकाती है कन्हैयाको । ‘क्यों लाला तूने माटी खायी, बता ?’ यशोदा समझा रही है हाथमें लाठी लेकर । क्यों माटी खायी ? ‘दूध-दहीने कबहूँ न नाटी’, दूध-दहीकी तेरेको ना कही क्या कभी मैंने ? तो माटी क्यों खाता है ? धमकाती है । मतलब क्या है ? मिट्टी खा लेगा तो पेट खराब हो जायगा । भीतरसे रोग लग जायगा । ये दुःख पायेगा । माँके चिन्ता हो रही है । कन्हैया तो परवाह नहीं करता । ‘नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः’ । ये झूठ बोलते हैं सब । सच्चा तो मैं ही हूँ एक । कन्हैयाने कहा‒मैया ! व्रजमें मेरे समान भला आदमी कोई नहीं है ।’ माँ हँसती है कि मैं जानती हूँ, तू है बड़ा ! ठाकुरजी सच्ची कहते है, व्रजमें उनके समान भला कौन है ! माँको विश्वास ही नहीं होवे । माँ कहती है कि मैं जानती हूँ तेरेको ! माँका स्नेह बहुत है, अत्यधिक ज्यादा और लालाको इतनी मस्ती आती है महाराज ! पूतनाने मारनेके लिये जहर पिलाया और उसको मुक्ति दे दी । दूध पिलानेवाली माताको क्या देंगे ? जहर पिलानेवालीको मुक्ति दे दी । दूध पिलानेवाली माँको अपने-आपको दे देते हैं और क्या देवें ? वो चाहे रस्सीसे बाँध देवे, तो बंध जाते हैं । वहाँ दामोदर नाम हो जाता है । अब बाँध दे, छोड़ दे; मर्जी आवे वैसे करे मैया । माँ है, अपनी खुशी है जैसे वह करे । ऐसी बात है, वो भी भीतरमें भाव होता है न ! भावसे भगवान्‌ वशमें हो जाते हैं । ‘भावाग्रही जनार्दनः’ तो जहाँ वो पूज्यभाव होता है, वहाँ भारी लगता है क्या ? बोलो ! अपने भावकी कमी है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे