।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
गीताकी अलौकिक शिक्षा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं सुख ले लूँ, मेरा आदर हो जाय, मेरी बात रह जाय, मुझे आराम मिले, दूसरा मेरी सेवा करे‒यह भाव महान्‌ पतन करनेवाला है । अर्जुनने भगवान्‌से पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ? तो भगवान्‌ने कहा कि ‘मुझे मिले’ यह कामना ही पाप कराती है (३/३६-३७) । जहाँ व्यक्तिगत सुखकी कामना हुई कि सब पाप, सन्ताप, दुःख, अनर्थ आदि आ जाते हैं । इसलिये अपनी सामर्थ्यके अनुसार सबको सुख पहुँचाना है, सबकी सेवा करनी है, पर बदलेमें कुछ नहीं चाहना है । हमारे पास अपने कहलानेवाले जो बल, बुद्धि, योग्यता आदि है, उसे निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवामें लगाना है ।

हमारे पास वस्तुके रहते हुए दूसरेको उस वस्तुके अभावका दुःख क्यों भोगना पड़े ? हमारे पास अन्न, जल और वस्त्रके रहते हुए दूसरा भूखा, प्यासा और नंगा क्यों रहे ?‒ऐसा भाव रहेगा तो सभी सुखी हो जायँगे । एक-दूसरेके अभावकी पूर्ति करनेकी रीति भारतवर्षमें स्वाभाविक ही रही है । खेती करनेवाला अनाज पैदा करता था तो वह अनाज देकर जीवन-निर्वाहकी सब वस्तुएँ ले आता था । उसे सब्जी, तेल, घी, बर्तन, कपड़ा आदि जो कुछ भी चाहिये, वह सब उसे अनाजके बदलेमें मिल जाता था । सब्जी पैदा करनेवाला सब्जी देकर सब वस्तुएँ ले आता था । इस प्रकार मनुष्य कोई एक वस्तु पैदा करता था और उसके द्वारा वह सभी आवश्यक वस्तुओंकी पूर्ति कर लेता था । पैसोंकी आवश्यकता ही नहीं थी । परन्तु अब पैसोंको लेकर अपनी आदत बिगाड़ ली । पैसोंके लोभसे अपना महान्‌ पतन कर लिया । पैसोंका संग्रह करनेकी ऐसी धुन लगी कि जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ मिलनी कठिन हो गयीं ! कारण कि वस्तुओंको बेच-बेचकर रुपये पैदा कर लिये और उनका संग्रह कर लिया । इस बातका ध्यान ही नहीं रहा कि रुपये पड़े-पड़े स्वयं क्या काम आयेंगे ! रुपये स्वयं किसी काममें नहीं आयेंगे, प्रत्युत उनका खर्च ही अपने या दूसरोंके काममें आयेगा । परन्तु अन्तःकरणमें पैसोंका महत्त्व बैठा होनेसे ये बातें सुगमतासे समझमें नहीं आतीं । पैसोंकी यह भूख भारतवर्षकी स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत कुसंगतिसे आयी है ।

एक मार्मिक बात है कि जो दूसरेका अधिकार होता है वही हमारा कर्तव्य होता है । जैसे दूसरेका हित करना हमारा कर्तव्य है और दूसरोंका अधिकार है । माता-पिताकी सेवा करना, उन्हें सुख पहुँचाना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है । ऐसे ही पुत्रका पालन-पोषण करना और उसे श्रेष्ठ, सुयोग्य बनाना माता-पिताका कर्तव्य है और पुत्रका अधिकार है । गुरुकी सेवा करना, उनकी आज्ञाका पालन करना शिष्यका कर्तव्य है और गुरुका अधिकार है । ऐसे ही शिष्यका अज्ञानान्धकार मिटाना, उसे परमात्मतत्त्वका अनुभव कराना गुरुका कर्तव्य है और शिष्यका अधिकार है । अतः मनुष्यको अपने कर्तव्यपालनके द्वारा दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करनी है । दूसरोंका कर्तव्य और अपना अधिकार देखनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है । इसलिये मनुष्यको अपने अधिकारका त्याग करना है और दूसरेके न्याययुक्त अधिकारकी रक्षाके लिये यथाशक्ति अपने कर्तव्यका पालन करना है । दूसरोंका कर्तव्य देखना और अपना अधिकार जमाना इहलोक और परलोकमें पतन करनेवाला है । वर्तमानमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते है, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते । इसलिये गीता कहती है‒
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
                                                    (२/४७)
‘अपने कर्तव्यका पालन करनेमें ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलोंमें नहीं ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे