।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
श्रीमहावीर-जयन्ती
गीताका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये हरेक काममें परहितका भाव रखें । इसमें खर्चा तो बहुत थोड़ा है, पर लाभ बड़ा भारी है । थोड़ा खर्च यह है कि कोई अभावग्रस्त सामने आ जाय तो उसको थोड़ा-सा अन्न दे दो, थोड़ा-सा जल दे दो, थोड़ा-सा वस्त्र दे दो, थोड़ा-सा आश्रय दे दो, उसकी थोड़ी-सी सहायता कर दो । कभी खुद भूखे रहकर दूसरेको भोजन देनेका मौका भी आ जाय तो कोई बात नहीं । हम एकादशीव्रत करते हैं तो उस दिन भूखे रहते ही हैं । जब देशका विभाजन हुआ था, उस समय पाकिस्तानसे आये कई व्यक्तियोंको दस-दस रुपये देनेपर भी एक गिलास पानी नहीं मिला था । अतः सब समय अन्न-जलका मिलना कोई हाथकी बात नहीं है । कभी भूखा-प्यासा रहना ही पड़ता है । यदि दूसरेके हितके लिये भूखे-प्यासे रह जायँ तो कल्याण हो जाय !

इस प्रकार जो कुछ किया जाय, सबके हितके लिये किया जाय । कोई किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मत-मतान्तर, वर्ण, आश्रम आदिका हो, जो पक्षपात न रखकर सबके हितका भाव रखता है, उसका कल्याण हो जाता है ।
अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु      वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
                                                                          (पञ्च अपरीक्षित ३७)
‘यह अपना है और यह पराया है‒इस प्रकारका भाव संकुचित हृदयवाले मनुष्य करते हैं । उदार हृदयवाले मनुष्योंके लिये तो सम्पूर्ण विश्व ही अपना कुटुम्ब है ।’

तात्पर्य है कि उदार भाववाले मनुष्य सम्पूर्ण कार्य विश्वमात्रके हितके लिये ही करते हैं । रामायणमें आया है‒
उमा संत कइ इहई बड़ाई ।
मंद करत जो करइ भलाई ॥
                                                                            (मानस. सुन्दर ४१/४)
जो अपना बुरा करता है, उसका भी सन्तलोग भला ही करते हैं । भगवान्‌ राम अंगदको रावणके पास भेजते समय कहते हैं कि शत्रुसे इस तरह बर्ताव करना, जिससे हमारा काम (सीताजीकी प्राप्ति) भी हो जाय और उसका हित भी हो‒
काजू हमार तासु हित होई ।
रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥
                                                                                (मानस, लंका१७/४)
मनुष्यमें ऐसा उदारभाव त्यागसे आता है । इसलिये गीतामें त्यागकी बड़ी महिमा है । त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । मनुष्य मल-मूत्र जैसी वस्तुका भी त्याग करता है तो उसको एक शान्ति मिलती है, चित्तमें प्रसन्नता होती है, शरीर हलका हो जाता है, नीरोगता आ जाती है । जब मैली-से-मैली वस्तुके त्यागका भी इतना माहात्म्य है, फिर अन्न-वस्त्र आदिका दूसरोंके हितके लिये त्याग किया जाय तो उसका कितना माहात्म्य होगा ! त्यागके विषयमें एक मार्मिक बात है कि जो वस्तु अपनी नहीं होती, उसीका त्याग होता है ! तात्पर्य यह है कि वस्तु अपनी नहीं है, पर भूलसे अपनी मान ली है, इस भूलका ही त्याग होता है । जैसे, जब हम मनुष्यशरीरमें आये थे, तब अपने साथ कुछ नहीं लाये थे, शरीर भी माँसे मिला था और जब हम जायँगे, तब अपने साथ कुछ नहीं ले जायँगे । परन्तु यहाँकी वस्तुओंको अपनी मानकर हम उसके मालिक बन जाते हैं । अतः उन वस्तुओंका मनसे त्याग करना है कि ये हमारी नहीं हैं, प्रत्युत सबकी हैं, जो कि वास्तविकता है । केवल इतनी-सी बातसे हमारा कल्याण हो जायगा । गीता कहती है‒
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
                                                                     (२/७१)
अर्थात्‌ शरीरमें ‘मैं’-पन और वस्तुओंमें ‘मेरा’-पनका त्याग करनेसे शान्ति मिल जाती है, कल्याण हो जाता है ।
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे