।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
गीताका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ भी मेरा नहीं है । इनको संसारका मान लें तो कर्मयोग हो जायगा, प्रकृतिमात्रका समझ लें तो ज्ञानयोग हो जायगा और भगवान्‌का मान लें तो भक्तियोग हो जायगा । यदि इनको अपना मानेंगे तो जन्म-मरणयोग हो जायगा अर्थात्‌ जन्म-मरण होगा, मिलेगा कुछ नहीं । जो अपना नहीं है, वह मिलेगा कैसे ? अपने पास रहेगा कैसे ? इसलिये गीता कहती है कि इन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिसे जो भी काम करो, सबके हितके लिये करो‒
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥  (४/२३)
‘यज्ञके लिये अर्थात्‌ निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं ।
रामायणमें आया है‒
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
                                                    (मानस, अरण्य ३१/५)
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
                                                       (मानस, उत्तर ४१/१)
 
दूसरोंका हित करनेसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों सिद्ध हो जाते हैं । सगुण और निर्गुण‒दोनोंकी प्राप्ति दूसरोंका हित करनेसे हो जाती है । गीताने सगुणकी प्राप्तिके लिये कहा है‒
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ (५/२५)

‘जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको (निर्गुणको) प्राप्त होते हैं ।’

हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि कोई भी क्यों न हो, यदि वह अपने सिद्धान्तोंका, नियमोंका पालन करते हुए त्याग करे अर्थात्‌ मिली हुई वस्तुको अपनी न माने तो उसका कल्याण हो जायगा । त्यागमें सब एक हो जाते हैं, कोई मतभेद नहीं रहता । जैसे कोई देवताओंका पूजन करता है, कोई ऋषियोंका पूजन करता है, कोई माँ-बापका पूजन करता है आदि-आदि । परन्तु नियम-पालनमें भिन्नता होनेपर भी दूसरोंके हितके लिये स्वार्थ और अभिमानका त्याग करनेमें सब एक हो जाते हैं । जिनमें अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागकी मुख्यता है, वे मत, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, ग्रन्थ, व्यक्ति आदि महान् श्रेष्ठ होते हैं । परन्तु जिनमें अपने स्वार्थ और अभिमानकी मुख्यता है, वे मत, सिद्धान्त, ग्रन्थ व्यक्ति आदि महान्‌ निकृष्ट होते हैं ।

सबका हित करनेसे अपना हित मुफ्तमें, स्वाभाविक ही हो जाता है । इसलिये हमें कोई नया काम नहीं करना है, प्रत्युत अपना भाव बदलना है कि हमारी सम्पत्ति सबके लिये है । हम तो सम्पत्तिकी रक्षा करनेवाले हैं । जैसे आवश्यकता पड़नेपर हम अन्न, जल, वस्त्र आदि अपने काममें लेते हैं, ऐसे ही आवश्यकता पड़नेपर दूसरोंको भी अन्न, जल, वस्त्र, औषध दे दें । जैसे खुद आवश्यकताके अनुसार वस्तु लेते हैं, ऐसे ही दूसरोंको भी आवश्यकताके अनुसार दें ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे