।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


    भगवान्‌की मंगलमयी अपार कृपासे भारतभूमिपर अनन्तकालसे असंख्य ऋषि, सन्त-महात्मा, भक्त होते रहे हैं । उनमें भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जी महाराजका विशेष स्थान है । वानर-जैसी साधारण योनिमें जन्म लेकर भी अपने भावों, गुणों और आचरणोंके द्वारा हनुमान्‌जीने प्राणिमात्रका जो परम हित किया है एवं कर रहे हैं, उससे लोग प्रायः परिचित ही हैं । उनके उपकारसे कोई भी प्राणी कभी उऋण नहीं हो सकता । भगवान्‌ श्रीरामके प्रति उनकी जो दास्य-भक्ति है, उसका पूरा वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है । फिर भी समय सार्थक करनेके लिये उसका किंचित्‌ संकेत करनेकी चेष्टा की जा रही है ।

        अपने-आपको सर्वथा भगवान्‌को समर्पित कर देना, उनके मनोभाव, प्रेरणा अथवा आज्ञाके अनुसार उनकी सेवा करना, उनको निरन्तर सुख पहुँचानेका भाव रखना तथा बदलेमें उनसे कभी कुछ न चाहना‒यही भक्तिका स्वरूप है । ये बातें हनुमान्‌जीमें पूर्णरूपसे पायी जाती हैं । वे अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, बल, योग्यता, समय आदिको एकमात्र भगवान्‌का ही समझकर उनकी सेवामें लगाये रखते हैं । उनका पूरा जीवन ही भगवान्‌को सुख पहुँचानेके भावसे ओतप्रोत है ।

       भगवान्‌को श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुख पहुँचानेके भावको ‘रति’ कहते हैं । यह रति मुख्यरूपसे चार प्रकारकी मानी गयी है‒दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य । इनमें दास्यसे सख्य, सख्यसे वात्सल्य और वात्सल्यसे माधुर्य रति श्रेष्ठ है । कारण कि इनमें भक्तको क्रमशः भगवान्‌के ऐश्वर्यकी अधिक विस्मृति होती जाती है और भक्तका संकोच (कि मैं तुच्छ हूँ, भगवान्‌ महान्‌ हैं) मिटता जाता है तथा भगवत्सम्बन्ध (प्रेम) की घनिष्ठता होती जाती है । परन्तु जब इन चारोंमेंसे कोई एक रति भी पूर्णतामें पहुँच जाती है, तब उसमें दूसरी रतियाँ भी आ जाती हैं । जैसे, दास्यरति पूर्णतामें पहुँच जाती है तो उसमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒तीनों रतियाँ आ जाती हैं । यही बात अन्य रतियोंके विषयमें भी समझनी चाहिये । कारण यह है कि भगवान्‌ पूर्ण हैं, उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है; क्योंकि संसार सर्वथा अपूर्ण है । हनुमान्‌जी में दास्यरतिकी पूर्णता है; अतः उनमें अन्य रतियोंकी कमी नहीं है । उनमें दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒चारों रतियाँ पूर्ण रूपसे विद्यमान हैं ।
दास्य-रति
       दास्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि भगवान्‌ मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास (सेवक) हूँ । वे चाहे जो करें, चाहे जैसी परिस्थितिमें मेरेको रखें और मेरेसे चाहे जैसा काम लें, मेरेपर उनका पूरा अधिकार है । इस रतिमें भक्तका शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें किंचिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहता । उसमें ‘मैं सेवक हूँ’ ऐसा अभिमान भी नहीं रहता । वह तो यही समझता है कि मैं भगवान्‌की प्रेरणा और शक्तिसे उन्हींकी दी हुई सामग्री उनके ही अर्पण कर रहा हूँ । ऐसे अनन्य सेवाभाववाले भक्तोंको यदि भगवान्‌ सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य‒ये पाँच प्रकारकी मुक्तियाँ* भी दे दें तो वे इनको ग्रहण नहीं करते‒
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


*भगवान्‌के नित्यधाममें निवास करना ‘सालोक्य’, भगवान्‌के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना ‘सार्ष्टि’, भगवान्‌की नित्य समीपता प्राप्त करना ‘सामीप्य’, भगवान्‌का-सा रूप प्राप्त करना ‘सारूप्य’ तथा भगवान्‌के विग्रहमें समा जाना अर्थात्‌ उनमें ही मिल जाना ‘सायुज्य’ मुक्ति कहलाती है ।