।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०६९, बुधवार
सेवा (परहित)


                संसारकी सेवा किये बिना कर्म करनेका राग निवृत्त नहीं होता ।
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                  जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं ।
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      जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जो भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही हैं ।
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   जैसे भोगी पुरुषकी भोगोंमें, मोही पुरुषकी कुटुम्बमें और लोभी पुरुषकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है ।
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                    व्यक्तिओंकी सेवा करनी है और वस्तुओंका सदुपयोग करना है ।
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             केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।
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         जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है ।
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           स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभावसे अर्थात्‌ अपने लिये करनेपर ‘परधर्म’ हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात्‌ दूसरोंके लिये करनेपर ‘स्वधर्म’ हो जाते हैं ।
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                वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है‒उसको दूसरेके हितमें लगाना ।
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                श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो दूसरोंके हितमें लगा हुआ है ।
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                अपना जीवन अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये है ।
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                दूसरेके दुःखसे दुःखी होना सेवाका मूल है ।
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             भलाई करनेसे समाजकी सेवा होती है । बुराई-रहित होनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है । कामना-रहित होनेसे अपनी सेवा होती है । भगवान्‌से प्रेम (अपनापन) करनेसे भगवान्‌की सेवा होती है ।
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जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसके द्वारा स्वतःस्वभाविक दूसरोंका हित होता है ।
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     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे