।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
कर्म, सेवा और पूजा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां          तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
                                                                      (गीता २/४४)
       भोग और ऐश्वर्यमें जिसकी आसक्ति है । भोग भोगना और पदार्थोंका संग्रह करना ‒दो ही बात बतायी । ‘यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते’ तो क्रियाओंमें और पदार्थोंमें नहीं फँसना । भोग जितना होता है, वह क्रियाजन्य होता है । भोग होता है, क्रिया होती है उसमें क्रिया-जन्य सुख है और संग्रह है‒वह पदार्थजन्य । पदार्थोंका संग्रह कर लूँ । इस वास्ते भगवान्‌ने कहा‒‘पत्रं पुष्पं फलं तोयम्’ ये वस्तु अर्पण कर दो । और अगाड़ी ‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्’ । क्रिया अर्पण कर दो । तो ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः’, दोनों बन्धनोंसे छूट जायगा । क्रिया और पदार्थ‒ये दो रूप ही हैं प्रकृतिके । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा । क्रिया और पदार्थोंके वशमें रहेगा, वो प्रकृतिके वशमें रहेगा, जन्मेगा और मरेगा । ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्यो-निजन्मसु’ (गीता १३/२१) । गुण सात्त्विक, राजस् और तामस होते हैं । पदार्थ भी सात्त्विक, राजस् और तामस होते हैं ।

जो पदार्थ और क्रियाओंमें आसक्त है, वो फँस जायगा । तो इसमें न फँसे‒इसका उपाय है आज्ञापालन । ‘आग्या सम न सुसाहिब सेवा’ आज्ञापालनके समान कोई सेवा है ही नहीं । कृत्यकृत्य हैं अपने । कुछ करना नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ लेना नहीं, कुछ सम्बन्ध ही नहीं अपने । लाठी है उसे जँचे वैसे चला दो । मालाको घुमाओ, वैसे घुमा दो । माला, लाठी कुछ कहती नहीं कि यूँ घूमाओ, यूँ करो । तुम्हारी मर्जी है, जैसे करो । ऐसे बड़ा आनन्द है‒शिष्यके लिये, पुत्रके लिये, स्त्रीके लिये, नौकरके लिये, प्रजाके लिये । बहुत आनन्द है ! अपना कुछ है ही नहीं । मालिक कहे, वैसे कर दिया । हरदम मस्त रहे, दुःख और सन्ताप कुछ है ही नहीं । न अपनी कोई चीज है, न कोई क्रिया है, न अपने कुछ लेना है, न कुछ करना है । शास्त्रोंने पतिव्रताकी बड़ी महिमा गायी है । पतिव्रताकी महिमा क्यों है ?

पति कहे ज्यों करे, उसकी राजीमें राजी रहे । अपना कुछ नहीं । अपने-आप भी अपनी नहीं । वो तो पतिकी है बस, उसके हाथका खिलौना है । खिलाओ, पिलाओ, मर्जी आवे ज्यों चलाओ । ऐसे ही पुत्र होता है । पुत्रका, शिष्यका, पत्नीका बहुत जल्दी होता है कल्याण । अपनी हेकड़ी छोड़ी कि हुआ कल्याण । अपनेपर काम आ जाय तो विचार करना पड़ता है कि यह करें कि नहीं करे, यह ठीक है कि बेठीक है । पर उन्होंने कह दिया, अपने कर दिया । क्यों कर दिया कि उन्होंने कह दिया इस वास्ते कर दिया । अपने क्या मतलब ? बोलो, इसमें शंका क्या है ? अरे ! अभिमान भरा है भीतरमें भाई ! अभिमान भरा है अभिमान ! अभिमान, आलस्य, प्रमाद‒ऐसी वृत्तियों भरी हैं । तामसी वृत्तियों कम होते ही सुगमतासे कल्याण हो जाता है और ज्यादा होती है तो देरी लगती है । शास्त्रविहित ही करना है, निषिद्ध थोड़े ही करना है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे