।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
दुर्गाष्टमीव्रत
गीताका तात्पर्य


श्रीमद्भागवद्गीता लौकिक होते हुए भी एक अलौकिक ग्रन्थ है । इसमें बहुत ही विलक्षण भाव भरे हुए हैं । आजतक गीतापर जितनी टीकाएँ हुई हैं, उतनी किसी भी ग्रन्थपर नहीं हुई है । बाइबिलके अनुवाद (भाषान्तर) तो बहुत हुए हैं, पर टीका एक भी नहीं हुई है । बाइबिलका प्रचार तो राज्य और धनके प्रभावसे हुआ है, पर गीताका प्रचार गीताके अपने प्रभावसे हुआ है । तात्पर्य है कि गीताका आशय खोजनेके लिये जितना प्रयत्न किया गया है, उतना दूसरे किसी भी ग्रन्थके लिये नहीं किया गया है, फिर भी इस ग्रन्थकी गहराईका अन्त नहीं आया है !

थोड़े शब्दोंमें कहे तो गीताका तात्पर्य है‒मनुष्य-मात्रका कल्याण करना । शास्त्रोंमें कल्याणके कई मार्ग बताये गये हैं । गीताकी टीकाओंको भी देखें तो उनमें अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्ठाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, अचिन्त्यभेदाभेदवाद आदि अनेक मतोंको लेकर टीकाएँ की गयी हैं । इस प्रकार अनेक वाद, सिद्धान्त, मत-मतान्तर होते हुए भी गीताका किसीके साथ विरोध नहीं है । गीताने किसी भी मतका खण्डन नहीं किया है; परन्तु अपनी एक ऐसी विलक्षण बात कही है, जिसके सामने सब नतमस्तक हो जाते हैं । कारण कि गीता किसी एक वाद, मत आदिको लेकर नहीं कही गयी है, प्रत्युत जीवमात्रके कल्याणको लेकर कही गयी है ।

आचार्यगण अपने-अपने मतको ‘सिद्धान्त’ नामसे कहते हैं । मत सर्वोपरि नहीं होता । हरेक व्यक्ति अपना-अपना मत प्रकट करता है । परन्तु सिद्धान्त सर्वोपरि होता है, जो सबको मानना पड़ा है । इसलिये गुरु-शिष्यमें भी मतभेद तो हो सकता है, पर सिद्धान्तभेद नहीं हो सकता । परन्तु गीतामें भगवान्‌ने अपने सिद्धान्तको ‘सिद्धान्त’ नामसे न कहकर ‘मत’ नामसे कहा है; जैसे‒
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा   युध्यस्व विगतज्वरः ॥
ये  मे   मतमिदं  नित्यमनुतिष्ठन्ति   मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
                                                      (३/३०-३१)
       ‘तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके कामना, ममता और सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर । जो मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ।’

      भगवान्‌का मत ही वास्तविक और सर्वोपरि सिद्धान्त है, जिसके अन्तर्गत सभी मत-मतान्तर आ जाते हैं । परन्तु भगवान्‌ अभिमान न करके बड़ी सरलतासे, नम्रतासे अपने सिद्धान्तको ‘मत’ नामसे कहते हैं । तात्पर्य है कि भगवान्‌ने अपने अथवा दूसरे किसीके भी मतका आग्रह नहीं रखा है, प्रत्युत निष्पक्ष होकर अपनी बात सामने रखी है ।


       ईश्वरको माननेवाले जितने भी दार्शनिक सिद्धान्त हैं, उनमें प्रायः तीन चीजोंका वर्णन आता है‒परमात्मा, जीवात्मा और जगत् । इन तीनोंके विषयमें कई मतभेद हैं । जैसे‒जीवके विषयमें कई कहते हैं कि यह अणु-परमाणु है, कई कहते हैं कि यह मध्यम-परिमाण है और कई कहते हैं कि यह महत्-परिमाण है । जीवको ‘अणु-परमाणु’ माननेवाले कहते हैं कि एक केशको चीरकर उसके दस हजार भाग किये जायँ तो एक भागके बराबर जीवका परिमाण है*। जीवको ‘मध्यम-परिमाण’ माननेवाले कहते हैं कि चीटींमें चीटीं-जितना ही जीव है, मनुष्यमें मनुष्य-जितना ही जीव है, हाथीमें हाथी-जितना ही जीव है । जीवको महत्-परिमाण’ माननेवाले कहते हैं कि जीव एक शरीरमें सीमित नहीं है, प्रत्युत यह बहुत महान्‌ है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
                                      [*] वालाग्रशतभागस्य    शतधा    कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर॰ ५/९)
‘बालकी नोकके सौवें भागके पुनः सौ भागोंमें कल्पना किये जानेपर जो एक भाग होता है, उसीके बराबर जीवका स्वरूप समझना चाहिये और वह असीम भाववाला होनेमें समर्थ हैं ।’