।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०६९, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
सन्त और उनकी सेवा


      तस्मिस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१)सन्त भगवान्‌से अपना अलग अस्तित्व नहीं मानते, इसलिये उनमें स्वार्थकी गन्ध भी नहीं रहती । भगवान्‌से अलग उनकी कोई इच्छा नहीं, वे स्वाभाविक ही भगवान्‌की इच्छामें अपनी इच्छा, उनकी रुचिमें अपनी रुचि मिलाये रहते हैं । अतः उनके हरेक विधानमें परम सन्तुष्ट रहते हैं ।

      सन्त भगवान्‌पर ही निर्भर रहते हैं । ‘जाही बिधि राखै राम, ताही बिधि रहिये’‒को वे अपने जीवनमें अक्षरशः चरितार्थ कर लेते हैं और इस प्रकार भगवान्‌के विधानानुसार रहनेमे वे बड़े प्रसन्न होते हैं । हमलोग भी भगवान्‌के विधानानुसार ही रहते हैं । (क्योंकि भगवान्‌की इच्छाके विरुद्ध एक पत्ता भी नहीं हिलता ।) पर उसमें हमारी प्रसन्नता नहीं होती, हमें बाध्य होकर रहना पड़ता है । यदि हममें मन-इन्द्रियाँके प्रतिकूल भगवद्‌विधानको बदलनेकी शक्ति-सामर्थ्य होती तो हम उसे अपने अनुकूल बना लेते । परन्तु क्या करें, हमारा वश नहीं चलता, तो भी शक्ति-सामर्थ्य न रहनेपर भी उससे बचनेका असफल प्रयत्न तो निरन्तर करते ही रहते हैं । पर सन्तमें ऐसी बात नहीं है, सन्तके मनमें भगवान्‌के विधानानुसार बरतनेमें कुछ भी विचार नहीं होता; प्रत्युत भगवान्‌के विधानके अनुसार प्राप्त परिस्थिति उसके लिये अनुकूल-से-अनुकूल प्रतीत होती है तथा उसके हृदयमें सदा-सर्वदा भगवान्‌के विराजमान रहनेके कारण उसपर प्रतिकूलताका कोई असर नहीं होता ।

      भगवान्‌ स्वयं कहते हैं‒
समोऽहं सर्वभूतेषु   न  मे  द्वेष्योऽस्ति  न  प्रियः ।  
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥  
                                                   (गीता ९/२९)

      ‘अर्जुन ! मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा प्रिय है, न अप्रिय है; परन्तु जो मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’ विचार कर देखें तो यह बात ठीक समझमें आ जाती है । जैसे एक अच्छा मकान है, उसमें किसीका कब्जा-दखल नहीं है, अतएव अच्छे पुरुषको उसमें स्वाभाविक ही प्रसन्नता होगी । इस प्रकार सन्तके अहंता-ममतासे रहित निर्मल अन्तःकरणमें भगवान्‌ प्रकटरूपसे रहकर बड़े प्रसन्न होते हैं; क्योंकि वहाँ उनके रहनेमें कोई किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं लगता, विघ्न नहीं डालता । भगवान्‌ ऐसे घरमें बड़े निःसंकोचभावसे रहते हैं । श्रीरामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदासजी कहा है‒
जाहि न चाहिये कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु  निरंतर  तासु  मन   सो   राउर  निज  गेहु ॥

      इस प्रकार सन्तके हृदयमें भगवान्‌का वास होनेसे, वह जो कार्य करता है, वह भी भगवान्‌ ही करते हैं, वह जो भी सोचता है, वह भगवान्‌ ही सोचते हैं; इत्यादि कथन सर्वथा सत्य है ।

      सन्त और भगवान्‌के विषयमें तीन प्रकारकी बातें मिलती हैं‒ (१) दोनोंमें कुछ अन्तर नहीं ।
संत-भगवंत    अंतर   निरंतर     नहीं
किमपि मति मलिन कह दास तुलसी ॥
                                         (विनयपत्रिका)
 
     सन्त ही भगवान्‌ हैं और भगवान्‌ ही सन्त हैं अर्थात्‌ सन्तोंका भगवान्‌के अतिरिक्त कोई पृथक अस्तित्व ही नहीं रहता । केवल भगवान्‌ ही रह जाते हैं । किसने कहा भी है ‒
ढूँढ़ा  सब   जहाँमें  पाया   पता   तेरा  नहीं ।
जब पता तेरा लगा तो अब पता मेरा नहीं ॥
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे