।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०६९, शनिवार
पापमोचनी एकादशी-व्रत (सबका)
सन्त और उनकी सेवा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
       (२) वास्तवमें भगवान्‌ भगवान्‌ ही हैं । सन्त सन्त ही है । सन्त भगवान्‌के बराबर नहीं, भगवान्‌ उससे बड़े हैं । सन्तके ज्ञान, सामर्थ्य, शक्ति आदि सीमित हैं और भगवान्‌का सब कुछ अनन्त और असीम है । माना, सन्त भगवान्‌को प्राप्त हो गया और दूसरेको भी उनकी प्राप्ति करा सकता है, पर वह भगवान्‌ नहीं बन जाता । न्यायसे भी यह ठीक लगता है । जैसे जब हमें कोई सन्त मिलता है तो हम कहते हैं‒ ‘महाराजजी ! भगवान्‌के दर्शन करा दो ।’ इससे प्रत्यक्ष है कि सन्तके मिलनेसे हमारी आत्यन्तिक तृप्ति नहीं हुई; उनसे बड़ी जो एक वस्तु‒भगवान्‌ है, उनको पानेकी इच्छा बनी रही । इससे स्वाभाविक ही भगवान्‌का बड़ा होना प्रकट होता है और सन्त सदा भगवान्‌को बड़ा मानते आये हैं ।
 
      (३) सन्त भगवान्‌से बढ़कर हैं गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं‒
राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम तें अधिक राम कर दासा ॥
 
      श्रीभगवान्‌ने भी दुर्वासासे कहा है‒
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥
 
      सन्तोंने तो भगवान्‌को बड़ा बतलाया और भगवान्‌ सन्तोंको बड़ा बतलाते हैं । परन्तु सन्तोंको भगवान्‌ और सन्त दोनों ही बड़ा बतलाते हैं । भगवान्‌ने कहीं भी अपनेको सन्तसे बड़ा बतलाया हो‒ऐसा देखनेमें नहीं आया । इस दृष्टिसे बड़े हुए सन्त ही और हम यदि अपने लाभके लिये विचार करते हैं तो भी सन्त ही बड़े हैं; क्योंकि परमात्माके सच्चिदानन्दरूपमें जीवमात्रके हृदयमें रहते हुए भी सन्त-कृपा और सत्संगके बिना भगवान्‌के उस परम आनन्दमय स्वरूपके अनुभवसे वंचित रहकर जीव दुःखी ही रहते हैं । भगवत्स्वरूपका अनुभव तो भगवद्भक्तिसे ही होता है और वह मिलती है सन्त-कृपा और सत्संगसे‒
भगति तात अनुपम सुख मूला । मिलइ जो होहिं संत अनुकूला ॥
भगति स्वतंत्र सकल गुन खानी । बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
 
      अतएव हमारे लिये तो सन्त ही बड़े हुए । भगवत्कृपासे प्राप्त हुए मानवदेहका फल मनुष्यके कर्म एवं साधनके अनुसार स्वर्ग, नरक अथवा मोक्ष‒सभी हो सकता है । किन्तु सन्तोंकी कृपासे प्राप्त हुए सत्संगका फल केवल परम पद ही होता है । भगवान्‌ तो दुष्टोंका उद्धार करते हैं उनका विनाश करके, पर सन्त दुष्टोंका उद्धार करते हैं उनकी वृत्तियोंका सुधार करके । भगवान्‌ अपने बनाये हुए कानूनमें बँधे हुए हैं । परन्तु सन्तोंमें दया आ जाती है । इस प्रकार भी सन्त भगवान्‌से बड़े हैं । भगवान्‌ सब जगह मिल सकते हैं, पर सन्त कहीं-कहीं ही हैं । अतएव वे भगवान्‌से दुर्लभ भी हैं‒
हरि दुरलभ नहिं जगत में,   हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेर्‌याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥
 
      हमारा उद्धार करनेमें तो सन्त ही बड़े हुए, अतएव हमें उन्हींको बड़ा मानना चाहिये ।
 
      तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो सन्त और भगवान्‌ दोनों एक ही हैं; क्योंकि सन्त भगवान्‌से पृथक् अपनी आसक्ति, ममता, रुचि आदि नहीं रखते । अतः वे भगवत्स्वरूप ही हैं‒
भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम, बपु एक ।
इन के पद बंदन किएँ नासत बिघ्न अनेक ॥
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे