।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०६९, रविवार
सन्त और उनकी सेवा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
       अब प्रश्न होता है कि सन्तोंका सेवन किस प्रकार किया जाय ? इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि सन्तोंके सेवनका सर्वोत्तम ढंग है उनके मन, उनकी आज्ञाके अनुसार चलना, उनके सिद्धान्तोंका आदरपूर्वक पालन करना । यह सन्त-सेवनकी ऊँची-से-ऊँची विधि है । इसका कारण यह है कि सन्तोंको अपना सिद्धान्त जितना प्यारा होता है, उतने उनको अपने प्राण भी नहीं होते, जो हमलोगोंको सबसे अधिक प्यारे हैं । यही कारण है कि आवश्यकता पड़नेपर वे अपने प्राण छोड़ सकते हैं, पर सिद्धान्त नहीं । अतएव उनके सिद्धान्तका सांगोपांग पालन करना, उनके मनके अनुसार चलना और यदि मनका पता न लगे तो इशारा-आज्ञा आदिके अनुसार चलना चाहिये, यह उनकी सबसे बड़ी सेवा है‒‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।’ अतः शरीरसे सेवा करनेके साथ ही श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मनसे भी सेवा की जाय तो कहना ही क्या है । उनका सिद्धान्त जाननेके लिये उनका संग करके उनसे भगवत्सम्बन्धी बात पूछनी चाहिये; इससे हम अधिक लाभ उठा सकते हैं । सन्तोंसे पुत्र, स्त्री, धन, मान, बड़ाई आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले सांसारिक पदार्थ चाहना अमूल्य हीरेको पत्थरसे फोड़ना है; यह सन्तोंके संगका सदुपयोग नहीं है । यों सन्तोंके कहने आदिसे पुत्र आदिकी प्राप्ति भी हो सकती है, किन्तु यह तो उनकी कीमत न समझना है ।

       सन्तोंको प्रायः हम समझते नहीं । हमलोग तो उसकी बाहरी क्रियाओंकी अर्थात्‌ अधिक खाने, नंगा रहने, मिट्टीको सोना बना देने आदि चमत्कारिक बातोंकी विशेषता देखना चाहते हैं; किन्तु इन बातोंसे सन्तपनेका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । सन्तोंका यह लक्षण कहीं भी नहीं लिखा है । गीतामें स्थान-स्थानपर भक्त आदिके लक्षण लिखे हैं, पर उसमें एक स्थानपर भी नहीं लिखा है कि ‘वे बेटा दे देते हैं, वचनसिद्ध होते हैं’ आदि ।

       तो फिर सन्तोंकी पहचान कैसे हो ? सन्तोंकी पहचानका सीधा-सा उपाय यही है कि जिस व्यक्तिके संगसे हमारा साधन बढ़े, हममें दैवी सम्पत्ति आये, हमारे आचरणमें न्याय आने लगे, भगवत्तत्त्वका ज्ञान होने, सत्‌-शास्त्र, भगवान्‌, महात्मा, परलोक और धर्ममें श्रद्धा बढ़े और भगवान्‌की स्मृति अधिक रहने लगे, हमारे लिये वही सन्त है । सन्तोंसे ऐसा ही लाभ लेना चाहिये और उनसे इस प्रकारका आध्यात्मिक लाभ लेना ही सच्चा लाभ है ।

       भगवान्‌से लाभ उठानेकी पाँच बातें हैं‒नाम-जप, ध्यान, सेवा, आज्ञा-पालन और संग । पर सन्तोंसे लाभ लेनेमें संग, आज्ञा और सेवा‒ये तीन ही साधन उपयुक्त हैं । सन्त-महात्मा पुरुष अपने नामका जप और अपने स्वरूपका ध्यान कभी नहीं बताते और जो अपने नाम और रूपका प्रचार करते हैं, वे कदापि सन्त नहीं । सच्चा सन्त तो भगवान्‌के ही नाम-जप और ध्यान करनेका उपदेश देता है । हाँ, वह सेवा, आज्ञा-पालन और संग‒इन तीनके लिये प्रायः मना नहीं करता । सेवामें कुछ संकोच रखता है और जहाँतक सम्भव होता है, नहीं करवाता है । सेवाके दो भेद हैं‒(१) पूजा, आरती करना आदि, (२) वस्त्र देना, भोजन देना, अनुकूल वस्तुओंको प्रस्तुत करना इत्यादि । भगवान्‌की तो ये दोनों ही सेवाएँ उचित हैं, परन्तु सन्त पुरुष पहले प्रकारकी सेवा नहीं चाहते और यदि कोई ऐसी सेवाके लिये आग्रह करता है तो वे अपने स्थानपर भगवान्‌की ही वैसी सेवा करवाते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि ‘मेरा शरीर हाड़-मांसका है, इसकी सेवासे क्या लाभ !’ दूसरे प्रकारकी सेवा वे आश्रम और वर्णके अनुसार स्वीकार करते हैं । इस प्रकार सेवा भी वह सन्तपनेकी दृष्टिसे नहीं लेता, आश्रम और वर्णकी ही दृष्टिसे लेता है, अतएव इन अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओंकी पूर्ति करना अनुचित नहीं । इस प्रकारकी सेवा केवल सन्त ही नहीं, जो भी हो ले सकता है । यदि कोई सन्त नहीं है, पर उसे भूख-प्यास लगी है तो वह कोई भी क्यों न हो, जिस व्यक्तिके पास ये भोजनादि वस्तुएँ हों, उससे शरीरनिर्वार्थ ले सकता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे