।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
आद्य जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य-जयन्ती
सत्‌-असत्‌का विवेक


(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मतत्त्वको कितना ही अस्वीकार करें, उसकी कितनी ही उपेक्षा करें, उससे कितना ही विमुख हो जायँ, उसका कितना ही तिरस्कार करें, उसका कितनी ही युक्तियोंसे खंडन करें, पर वास्तवमें उसका अभाव विद्यमान है ही नहीं । सत्‌का अभाव होना सम्भव ही नहीं है । सत्‌का अभाव कभी कोई कर सकता ही नहीं‒ ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २/१७) ।

‘उभयोरपि दृष्टः’ पदोंका तात्पर्य है कि तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्‌-तत्त्वको उत्पन्न नहीं किया है, प्रत्युत देखा है अर्थात्‌ अनुभव किया है । तात्पर्य है कि असत्‌का अभाव और सत्‌का भाव‒दोनोंके तत्त्वको (निष्कर्ष) को जाननेवाले जीवनमुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष एक सत्‌-तत्त्वको ही देखते हैं अर्थात्‌ स्वतः-स्वाभाविक एक ‘है’ का ही अनुभव करते हैं । इसलिये असत्‌की सत्ता नहीं है‒यह भी सत्य है और सत्‌का अभाव नहीं है‒यह भी सत्य है । अतः दोनोंका तत्त्व सत्‌ ही है‒ऐसा जान लेनेपर उन महापुरुषोंकी दृष्टिमें एक सत्‌-तत्त्व (‘है’) के सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।
 
असत्‌की सत्ता विद्यमान न रहनेसे उसका अभाव और सत्‌का अभाव विद्यमान न रहनेसे उसका भाव सिद्ध हुआ । निष्कर्ष यह निकला कि असत्‌ है ही नहीं, प्रत्युत सत्‌-ही-सत्‌ है ।
(३)
जो सहज निवृत्त है, वह ‘असत्‌’ है और जो स्वतः प्राप्त है, वह ‘सत्‌’ है । निवृत्तिका नित्यवियोग है और प्राप्तका नित्ययोग है । असत्‌का केवल अभाव-ही-अभाव है और इस अभावका कभी अभाव (नाश) नहीं होता । सत्‌का केवल भाव-ही-भाव है और इस भावका अभी अभाव नहीं होता । असत्‌की सत्ता माननेसे ही निवृत्त और प्राप्त ये दो विभाग कहे जाते हैं । असत्‌को सत्ता न दें तो न निवृत्त है, न प्राप्त है, प्रत्युत सत्तामात्र ज्यों-की-त्यों है । दूसरे शब्दोंमें, जबतक असत्‌की सत्ता है, तबतक विवेक है । असत्‌की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’‒इसमें ‘उभयोरपि’ में विवेक है और ‘अन्तः’ में तत्त्वज्ञान है अर्थात्‌ विवेक तत्त्वज्ञानमें परिणत हो गया और सत्तामात्र ही शेष रह गयी ।

जैसे दिन और रात‒दोनों अलग-अलग हैं, ऐसे ही सत्‌ और असत्‌‒दोनों अलग-अलग हैं । जैसे दिन रात नहीं हो सकता और रात दिन नहीं हो सकती, ऐसे ही सत्‌ असत्‌ नहीं हो सकता और असत्‌ सत्‌ नहीं हो सकता; परन्तु तत्त्वसे दोनों एक ही हैं । जैसे दिन और रात‒दोनों सापेक्ष हैं, दिनकी अपेक्षा रात है और रातकी अपेक्षा दिन है, पर सूर्यमें न दिन है, न रात है अर्थात्‌ वह निरपेक्ष प्रकाश है । ऐसे ही सत्‌ और असत्‌‒दोनों सापेक्ष हैं, पर परमात्मतत्त्व (सत्‌-तत्त्व) निरपेक्ष है । इसलिये तत्त्वदर्शी महापुरुष सत्‌-असत्‌‒दोनोंके एक ही तत्त्व सत्‌-तत्त्व अर्थात्‌ निरपेक्ष परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे